#anilbhatpahari
शनिवारीय चिंतन :
साहित्य और समाज के लिए
भारतीय परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी चेतना खात्में की ओर हैं।हालांकि साहित्य में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के नाम पर वह अब भी पाठ्यक्रम और कथित बौद्धिक जगत में विराजमान हैं। यह ऐसा भी है कि नये चयन प्रकाशन और वितरण की झंझट कौन पाले ? शायद इसलिए भी विगत 40-50 साल से वही चला रहा है । अध्यापक,विद्यार्थी और पाठक एकतरह कोरे बुद्धिजीवी टाईप रुढ -मूढ सा हो गये हैं। एक जड़ता सा यहां नज़र आते हैं।
वर्गीय समुदाय के एकीकरण और उनकी अपनी अस्मिता के संरक्षण और प्रतिष्ठापन का समय चल रहा हैं। यहां जीवंतता है पर वह साहित्य में अब तक गंभीरतापूर्वक यही बौद्धिक (मध्यम ) वर्ग क्यो नही ले पा रहें है? इन प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए। ऐसा लगता है कि यह बौद्धिक वर्ग अपनी ओढ़ी हुई केचुंल उतार सरल सहज होना नही चाहते और जो अभिजात्य है उस तरह जटिल बन नही सकते।
- डा. अनिल भतपहरी
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