।।चंद्र बिन्दू होकर हलंत् कहलाने का माद्दा महंत में हैं।।
विविधाताओं के सर्जक महंत जी स्वयं के परिचय देते अपनी एक कविता में कहते है - " चंद्र बिन्दू होकर हलंत हूं... "अब कोई दुनियावी लोग उन्हे कितना उठाए या गिराए कोई फ़र्क नहीं पड़ता । क्योंकि वे ऊपर पहुंच कर चंद्रबिन्दू है और नीचे हलंत से आगे कुछ भी नहीं।इस तरह देखे तो उनकी वह उक्ति उनके लिए कितना सटीक है यह वह स्वयं तय करते है - "अपना शीश काट कै बीर हुआ कबीर " की तरह ।
निर्विकार निर्लिप्त संत सदृश्य व्यक्तित्व का कवि देवधर महंत का दर्शन लाभ हुआ 2000 में जब पलारी के अमित इंटरप्राइजे़ज स्थित एस टी डी बुथ पर बातें करने पंक्तिबद्ध खड़े थे, तब हुआ। वे समीप तहसील कार्यालय से आए थे और मै शा महाविद्यालय पलारी से (तब हमारे महाविद्यालय का नामकरण नही हुआ था और प्रक्रिया चल रहे थें। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गौ भक्त नयनदास महिलांग पूर्व विधायक बलौदाबाजार के निकटस्थ सहयोगी मदन ठेठवार और बृजलाल वर्मा पूर्व केन्द्रिय मंत्री के नाम पर सहमति होना शेष था। अंतत: बृजलाल वर्मा जी नाम महाविद्यालय हुआ) जहां पर 19 वर्षो तक अध्यापन करने का सौभाग्य मिला । आदि कवि वाल्मिकी के कर्मभूमि तुरतुरिया के समीप प्राचीन सिद्धेश्वरनाथ मंदिर के प्रांगण मे बसा छोटा सा पुजारी पाली पलारी हुआ ऐसा जनश्रुति हैं। यहां वे तहसीलदार रहते समन्वय साहित्य परिवार की स्थापना कर अंचल के साहित्यकारो / संस्कृति प्रेमियों को एकत्र करने का नायाब कार्य इस नायब तहसीदार ने किया जिनका स्नेहाशीष आज पर्यन्त अग्रज सदृश्य मिल रहा है ।
हालांकि देवधर महंत नाम मेरे लिए नया नही बल्कि सुना और पढ़ा गया था। अपने अग्र पंक्ति मे ऊंच पुर व्यक्ति को शालीनता से धैर्य पूर्वक खड़े हुए देखा और उनकी इस व्यवहार से प्रभावित हुआ। कितनी सादगी मय जीवन शैली है जबकि समीप ही उनके कार्यालय और उनके मातहत लोग इर्द -गिर्द हैं .... बहरहाल
हमलोग अनेक मंच पर साथ रहे और गांव ,शहर जहां जब अवसर मिले कविताएं पढते सुनते रहें। उनके साथ और संस्मरण हम लोगों के लिए पाथेय है जिन्हे ग्रहण कर अभीष्ट की प्राप्ति कर सकते है। आप इस अंचल के रचनाकारों के साथी व प्रेरक रहे हैं जिनमें डा आर एस जोशी रामरुप वर्मा ,डा उमाकांत मिश्र ,दत्तात्रेय अग्निहोत्री कृपाल पंजवानी , अनिल जांगड़े गौतरिहा ओम प्रकाश कोशले सालिकराम सेन , बाबूखान मीर अली मीर रामकुमार साहू पोखन जायसवाल रामनरायण यादव नेहरु यादव दिनेश पटेल सहित मै स्वयं जिन्हे समन्वय साहित्य परिवार में संधारे और छत्तीसगढ़ राजभाषा साहित्य समिति बनाने प्रेरित किए।
कुछेक नामचीन दंभ दर्शित तथाकथित वरिष्ठों की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते कह उठते है -
उल्होय डोहड़ू ल कतको
खोटइंया हे
लोहा ल पारस बन छुवइंयां कतका हे ?
छत्तीसगढी सेवक सप्ताहिक पत्रिका ततात्कालीन समय मे छत्तीसगढ़ी अस्मिता को स्वर देती छत्तीसगढी प्रेमियों के लिए एक मंच की तरह भूमिका निभाई और छत्तीसगढ राज्य व छत्तीसगढी के लिए आन्दोलन रत भी रही इनमें हम लोग साथ साथ छपते भी रहे है। अलग छत्तीसगढ़ राज भाव भूमि अउ भाखा आलेख के प्रकाशन से इस नाचीज़ को उनके पाठक और छत्तीसगढ़ी प्रेमी जन पहिचानने लगे मुझे उनके संपादक जागेश्वरप्रसाद जी महंत जी के काव्य और उनमें नीहित भाव के प्रति बताए भी थे । सच मे उनकी छत्तीसगढ़ के प्रति विभिन्न नदियों के माध्यम से व्यक्त पीड़ा दर्शनीय है -
अरपा अकबकावत हे हस्दो हदरय केलो कलपय
आठों पहर धरर धरर आंसु महानदी ढरकावय ... कितनी भावप्रवण और अनुप्रासिक वर्णन हैं।
महंत जी कविता गढे गये नही लगते बल्कि स्वभाविक ढंग से हृदय से प्रस्फूटित लगते है जैसे अनायस कही से सोता फूट पड़ा हो । उनकी अलंकारिक योजना चमत्कृत करते है और अनुठा दृश्य रचते है -
ठउका फबे हे जनेऊ असन
बेलासपुर के देह म अरपा ...
बस या कार के खिड़की ले झाकत अरपा के पुल ल नाहकत देखबे त ए डांड के सुरता नइ आही त समझ कि कही न कही काव्यास्वादन क्षरित तो नही हो चूके हैं।
फिर आंखों के सामने विस्तृत अरपा ही ओझल जाएगा जैसे कि यहां पर हो गये है -
"वो दिन दू चार झन खोजत रहिन अरपा ल कंडिल घरे
अरपा पटाय हे
विधान सभा अउ लोकसभा के तरी म
अरपा चिपाय हे आफ़िस के
फाईल म "
महंत की रचना संसार उनके की कद काठी के अनरुप ऊंच पुर है । और जैसा कि उनकी वृहत्तर क्षेत्र मे सेवाएं है, ठीक उसी तरह विस्तृत है ... कभी देवभोग से देवधर बोलते है तो कभी बलौदाबाजार से तो कभी बिलासपुर तो कही रायगढ़ ... ऐसा लगता है कि उन्हे हर जगह छत्तीसगढ़ महतारी पहुंचा रहे है कि जा देवधर जा ओ डेहरी तको दीया मढा दे जिला कुलुप हवय तोला देवता धामी के ठांव अउ मंदिर मं दीया बारे के जरुरत निये ... उनका कबीर उन्हे तार सप्तक सुर देकर उन्हे उन्मत्त गाने आदेशित कर रहे है ...
बिलकुल नही बचे है दीए
किसी देवी -देवता के लिए
रुढ़ताओ/ मूढ़ताओं के विद्रोही और कथित मुख्यधारा के प्रतिरोध का स्वर के साथ महंत जी " निर्गुण बानी भांजते" सुफी संत कस चुपचाप मया के धान बोवत गुरु घासीदास सरीख (काबर कि ओहर संत हिदरय के खेत म अधर रुपी नागर चला के सतनाम रुपी धान बीज बोवइया आय ) नंगरिहा लहुट जथे ... ये कविता म उनमन सतनाम दर्शन के संग एकाकार होय असन लगथे -
तोर मया हिरदय म धान अस बोवागे ...
विरोत्तेजक भाव हर तुरते ताही प्रेमल अउ सर्वग्राही भाव म बदल जथे । जो अउ जादा संघातक प्रहार करत केवल कबीर का संगत नही गुरुघासीदास कस अंगत ( बैरी तक मितान बद लेथे) बड़ सिधवा होत उनमन " टेड़ा कस मथिया नवा के " पियसहा /अइलात बिरवा मन ल नव जीवन धार देथे । महंत वह जो अपने मम् अर्थात् अहं भाव को हत अर्थात नष्ट कर ले । अपने नाम सार्थक करते कविवर सर्वहितकारी और अमरत्व भाव से युक्त मधुर गीत गाते हुए मुझे मोहक और प्रिय लगते हैं.....
डा. अनिल कुमार भतपहरी
सचिव
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग
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