Friday, March 26, 2021

आत्मवाद बनाम अनात्मवाद

Hempuspa Patil नहीं जी आपके मानने न मानने का यह मसला नही है। आत्मवादी विचार और ख्यालात पैदा करने की कोशिशे अनवरत जारी हैं। बडे बडे पढे लिखे ओहदेधारी लोग इन पर प्रतिबद्ध ढंग से समर्पित हैं। राजकोष और अनेक तंत्र सक्रिय हैं। ताकि आत्मा परमात्मा में जनमानस उलझे रहे और धार्मिक / आध्यात्मिक होने की मुगालते में जीते रहे ।
बहरहाल आत्मानुभूति शब्द में प्रमुख तत्व अनुभूति हैं। आत्म मतलब यहाँ अपने में, अपने में मतलब स्वयं के मन और मस्तिष्क में जो अनुभूति यानि की अनुभव स्मरण स्पर्श प्रेम आनंद धृणा द्वेष मद मत्सर  गर्व आदि  है  वह सब मानव के   मन  मस्तिष्क  में उत्पन्न होते हैं । मन -मतिष्क का विकास परिवेशगत (वातावरण आदि )  व प्रकृतिगत होते हैं। 
   यहाँ आत्मा गौण हैं क्योंकि आत्मा में गुण -दुर्गुण जैसा तत्व होना सिद्ध नहीं है न हो सकता हैं। आत्मा गुणी होते तो चीटी कीडे मकोडे भी गुणी हो जाते उन्हे भी परमपद मिल जाते! पर ऐसा होते नहीं है।
   आत्मा यानि  प्राण तो मनुष्य  पशु पक्षी कीट पतंग में हैं  यह जीवन तत्व हैं बुरे -भले सभी जीते हैं। भेड़ बैल या कीट पतंग जैसा जीवन मानव के लिए नहीं है। पर नादानवश उसी तरह जीते हैं। बहुत लोग तो सुअर और कुत्ते के मानिंद रहते हैं। और सौ साल मजे से जीते हैं। तब उनकी आत्मा क्या और कैसी हैं।
 मन मस्तिष्क परिवेश व प्रकृति के कारण ही भिन्न -भिन्न हो जाते हैं। इस तरह देखे तो आत्मा तटस्थ है ,निर्विकल्प  हैं ।इसलिए उनकी चिन्ता न कर तन  मन और मस्तिष्क का चिन्ता करना चाहिए ।
स्वस्थ तन में स्वस्थ मन और मस्तिष्क रहते हैं। तो ही व्यक्ति का समग्र विकास होते हैं। इनकी ओर ध्यान न देकर आत्मा परमात्मा के चक्कर में फसकर व्यक्ति केवल भ्रमित व संशकित रहते हैं। इहलोक न सुधार कर कल्पित परलोक सुधारने और मिथकीय परमात्मा के दर्शन कृपा या उनमें समागम होने की ख्याली पुलाव या कल्पना में डुबते उतरते भ्रमित रहते हैं। दुर्भाग्यवश ईश्वरवादी और आत्मवादी दर्शन और उनके अनुयायियों इसी के चक्कर में अनेक तरह की कर्मकाण्ड पूजा बलि ढोग पांखड और जात पात ऊच नीच जैसी अराजकताओ और वर्जानाओं में लगा हुआ हैं। और इस सुन्दर संसार को असुन्दर कर रखा है। अपने मिथकीय मत व कल्पनाओं में उलझा हुआ है। 
   महात्मा बुद्ध कबीर गुरुघासीदास समझाते रह गये पर ईश्वरवादियों की ब्रम्हजाल में जन साधारण आज पर्यन्त उलझा हुआ है। बल्कि इन महान प्रवर्तकों और तत्ववेत्ता दार्शनिकों उपदेशकों को भी ईश्वर वादी घोषित कर प्रक्षिप्त रुप से  निर्गुण उपासक कहते फिर रहे हैं। यहाँ तक अवतारी कह कर ईश्वरीय ठप्पा लगा दिए गये हैं।

 इस तरह से देखे तो आत्मवाद और अनात्मवाद यह बड़ी गंभीर दार्शनिक अवधारणाएँ हैं। परस्पर द्वंद्वात्मक भी हैं क्योंकि एक पक्ष और दूसरा विपक्ष हैं। जन साधारण आत्मवाद मे फंसे हुए हैं विरले ही अनात्मवाद को समझते व व्यवहृत करते हैं। 
      अध्यात्म की यात्रा का अंतिम पड़ाव अनात्मवाद ही हैं। जहां से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता हैं। 
   और आत्मवाद केवल  कल्पित परमात्मा कॊ भक्ति और पूजापाठ कर्मकाण्ड आदि हैं। जिसमे रत व्यक्ति शांति या आनंद या ईश्वर कृपा मिल रहा है के भ्रम में रहते 
    -डाॅ.अनिल भतपहरी 

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