"कबीर बनाम तुलसी "
भारतीय संस्कृति को संत कबीर और भक्त तुलसीदास बेहद गहराई से प्रभावित किया हैं। इन दोनो मनीषी के ऊपर हिन्दी साहित्य के चोटी के विद्वान द्वय लेखक विचारक आचार्य रामचंद्र शुक्ल व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लेखन किया हैं। और अपनी अपनी स्थापना की हैं। शुक्ल जी के कबीर प्रति अनुदार रहा हैं और उसे व उनकी काव्य को हाशिए पर रखने की चेष्टा की हैं। जबकि द्विवेदी जी ने कबीर को बौद्धिक जगत में पांडित्यपूर्ण ढंग से स्थापित किया। फलस्वरुप इन दोनों की विवेचना के आधार पर परिचर्चा व लेखन होते रहा है।
इस कड़ी में "कबीर बनाम तुलसी" एक विचारोत्तेजक पठनीय पुस्तक प्रकाशन हुआ हैं। इसके लेखक साधु सर्वोत्तम दास कबीर आश्रम पंडरी रायपुर से हमारा विगत ३०-३२ वर्षो का सानिध्य हैं। वे प्रवचन शैली में विरोत्तेजक साहित्य लिख रहे हैं। यह किताब शुक्ल और द्विवेदी जी के लेखन से ऊपजा वैचारिक विमर्श का एक सोपान हैं।
इस बीच साधु अभिलाष दास साहेब जो जाति के ब्राह्मण पर कबीर पंथ में दीक्षित कबीर पंथी साधु थे ने भी परिचर्चा किया करते थे।उनकी एक बेहतरीन किताब शुक्ल की दृष्टि में कबीर आए थे ,जो कबीर पंथियों चर्चित रहा।
हमारा सौभाग्य हैं कि संत अभिलाष दास जी से बाल्यावस्था से नौवी कक्षा से आध्यात्मिक सवाल जवाब करने का अवसर पिताश्री एस डी भतपहरी जी के कारण कोसरंगी खरोरा में मिला जब वे वहाँ प्राचार्य थे और स्कूली विद्यार्थीयों के नैतिक विकास व आध्यात्मिक जानकारियाँ हेतु उन्हे आमंत्रित किया।उनके साधु मंडली में लेखक साधु सर्वोत्तम दास भी शामिल रहते । हमारा परिक्षेत्र के अनेक साहू बाहुल्य ग्राम कबीर पंथियों का हैं। और सतनामी साधु भी उनमें सम्मलित रहते हैं। इस तरह कबीर सतनामियों में भी ग्राह्य हैं। हमारा आलेख उनकी पत्रिका "पारख संदेश "इलाहाबाद से प्रकाशित भी होते रहे हैं।
बहरहाल तुलसी वर्णाश्रम संस्कृति के पोषक सनातनी राम भक्त महाकवि हैं। जबकि कबीर पहुँचे हुए वाणी सिद्ध निर्गुण संत हैं। दोनो की तुलना में बेसिक अंतर तो रहेगा ।
एक यथास्थिति वादी हैं। तो दूसरा परिवर्तन वादी । तुलसी राम चरित मानस के कारण घर घर पुज्य रहा है। जबकि कबीर बहिष्कृत और उनके पद दोहे होली जैसे हुड़दगी महौल में गाये जाते रहे हैं। आज भी सुनहु मोर कबीर या कबीरा सरा रा रा जैसे से शुरु कर वाहियात फगुनाहट गीत गाये जाते हैं। जहाँ महिलाओं का उपस्थिति वर्जित हैं।
पर इस धारणा को कबीर पंथी और साधु समाज तोडा । कबीर पंथी साधुओ के सत्संग में महिलाओं की उपस्थिति नवधा भागवत पुराण के अपेक्षाकृत बहुत ही न्युनतम रहते हैं। यह हम स्वयं देखा पर क्रमशः संत अभिलाष और गृंधमुनिनाम साहब की निरंतर प्रयास से संत समागम में समाज के दोनो पक्षों की उपस्थिति महत्वपूर्ण हुई। छग में कबीरपंथी राम के नाम पर दोनो महाकवियो के वाणी के अनरुप समन्वय भाव से जीवन निर्वहन करते आ रहे हैं। वहाँ निर्गुण सगुण जैसा विभेद नजर नहीं आते चाहे साहु हो पनिका या अन्य कबीर पंथी जातियाँ ।वे अपने जाति दायरे में आबद्ध दोनो जीवन दर्शन को अपनाए हुए हैं।
इन सबके अतिरिक्त छग में करीब १४% सतनामी जो विशुद्ध निर्गुण मार्गी सतनाम उपासक व जातिविहिन समुदाय हैं। वे लोग भी आजादी के बाद से पता नहीं किस अन्यान कारणों से अपनी सात्विक व साधनात्मक जीवन शैली बदल लिए हैं। ऐसा लगता हैं कि इन वर्गों की उपेक्षा ही आक्रोश में परिवर्तित होकर जो होगा देखा जाएगा सादगी व आध्यात्मिक जीवन में सम्मान नहीं तो प्रदर्शन और रंगीनी में महत्व मिलेगा सोचकर मेले जयंती मडाई नाच पेखन आदि की ओर प्रवृत्त हो गये जान पड़ता हैं। फलस्वरुप जो सतनाम की उच्च विरासत रहा वह चंद साधकों के लिए होकर रह गये ।आम जन मानस कमाओ खाओ और छण भंगुर जीवन हैं। तो बढिया से जियों जैसे मनोवृत्ति से धिरते गये।संचय व व्यवसायी वृत्ति रहा नहीं न ज्ञान दर्शन और परोपकार कार्य की ओर आकृष्ट हो सके इसलुए भी सतनामी समाज अभी आध्यात्मिक प्रवचन सुनने की मानसिक स्तर पर कम ही पहुंचा हैं ऐसा लगता है।
पिता श्री के निर्देशन में १९८४ को इंदिरा गांधी के हत्या उपरान्त जनरल प्रमोशन मिलने से हम विद्यार्थी लोग लगभग पढाई लिखाई से मुक्त घुमने फिरने और वीडियो फिल्म नाच मडाई के आकर्षण में फसते गये उन्हे रोकने नवयुवको की एक टीम जागृति मंच हमारे अध्यक्षता में गठित करवाए और दस दिवसीय गुरुगद्दी पूजा महोत्सव का आगाज १९८५ में कराए ... इस तरह सत्संग प्रवचन गायन नृत्य अभिनय जैसे मंचीय प्रेरणादायी कार्यक्रमों का व्यवस्थित ढंग से शुभारंभ हुआ।जो कि विगत ३० वर्षो से गुरुगद्दी पूजा महोत्सव व नामायण के रुप में चला आ रहा है। इस तरह वर्तमान में सतनाम सत्संग का वातावरण तैयार हुआ।अन्यथा नाचा गाना आर्केस्ट्रा ददरिया में मनोरंजित होते ज्ञान चर्चा से कोसो दूर इसलिए बौद्धिक स्तर निम्नस्तर पर है। गिरौदपुरी धाम भी इनसे अछुता नहीं वहां मुख्य मंच पर आध्यात्मिक परिचर्चा होते ही नहीं बस पंथी नाचा गाना ही अनवरत चलते रवता है। फलस्वरूप कोई व्यवस्था सामाज सापेक्ष आज पर्यन्त नहीं हैं। (प्रगतिशील सतनामी समाज के सौजन्य से हमारे संयोजन में विगत २०१३ से गिरौदपुरी में सतनाम धर्म संस्कृति एंव गुरु घासीदास चरित पर आधारित बौद्धिक परिचर्चा एंव विराट कवि सम्मेलन अनवरत करते आ रहे हैं। पर लोकप्रियता देख मेले परिसर से दो वर्षों से जगह उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। फलस्वरूप मुख्य गेट के बाहर आयोजन कर रहे हैं।) साधु लेखक कवि विचारकों को उचित सम्मान व आमंत्रण तक नहीं मिलते अत: ऐसे प्रवृत्तियों के लोग सिख संगत कबीर पंथ रामास्वामी आदि के आकर्षण में वहाँ के होकर रह गये हैं। इसलिए विशाल सतनामी समाज में चिन्तन मनन कर आध्यात्मिक जीवन शैली की ओर प्रेरित करने वालों की कमियाँ परिलक्षित होतें हैं ।धर्म गुरुओं की प्रभाव भी इस कारण अपेक्षाकृत कमतर हैं या उनकी बातें प्रवचन से अनुराग न होने के कारण अनसुनी कर दी जाती हैं ,ऐसा प्रतीत होते हैं। पर शुक्र हैं अब जाकर सत्संग प्रवचन का आयोजन गांव गांव में होनेहुई। है ।और रामत रावटी में सत्संग प्रवचन के धारा रहा जो गुरुबालक दास के शहादत के बाद थम सा गये थे पुनश्च गतिमान होने लगा हैं।
बहरहाल साधु सर्वोत्तम साहेब का यह किताब संत समाज में स्वागतेय है। तुलसी और कबीर से संदर्भित बातें उनके साथ हम लोग करते ही रहते हैं। वे अपने दृष्टिकोण से एक वैचारिक दस्तावेज तैय्यार किया वह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उन्हे अनन्य बधाई आशा हैं कि इससे समाज के मनोवृत्ति और प्रवृत्ति में अपेक्षित परिवर्तन होन्गे।
।।सतनाम सत्तकबीर ।।
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