Wednesday, August 29, 2018

सर्व व्यापी सतनाम

"सतनाम सर्वव्यापी "

सतनाम  आदि काल से व्यहृत है।इनके संदर्भ में  प्राचीन काल से लिखित में जानकारियाँ हैं। पालि में बुद्ध वचन सच्चनाम लिखे गये हैं। शिवपुराण में भी अमरकथा के अन्तर्गत सतनाम का ही संस्मरणहैं। वेद उपनिषद आदि में सतनाम की महिमा गाई गई हैं। अधिकतर ग्रंथ पुराण निगम सुत्रादि में सतनाम ही मूल सचेतक हैं। जिनते भी समाज अन्वेषक गुरु संत महात्मा उपदेक व सर्जक हुए सतनाम का ही सुमरन किए किसी ने सतनाम को साकार करते पात्रो को सत्य‌निष्ठा से जीवन यापन करते उनके चरित लिखे तो किसी ने उनके निराकार  स्वरुप का आराधना किए ।तो कोई उन्हे साकार निराकार से परे सद्गुण और भाव बताए .... इस तरह वह सर्वव्यापक होते गये ।वह ईश्वर गाड अल्लाह खुदा भगवान जैसे महिमामय और रहस्यमय तक हो गये।इस तरह साधक उनके अनगिनत स्वरुपों का वर्णन व दिग्दर्शन करने आरम्भ से लगे हुए है। बावजूद वह अपरिभाषित अअवलोकित व अवर्णनीय एंव अग्येय बना हुआ है। इसे चालाकियों विचित्र करमकांडो व क्रियाओ द्वारा आसानी से समझे नहीं जा सकते बल्कि सहज भाव से पवित्र मन व बुद्धि से स्वानुभूत किए जा सकते हैं। ऐसा पूर्व द्रष्टाओं ने कहे हैं। 
   बुद्ध कबीर गोरख नानक रैदास उदादास जगजीवन एंव गुरुघासी   सतनाम का प्रवर्तक हैं । इनकी संस्थापक अज्ञात हैं। इसलिए उसे रुपक में सतनाम सतपुरुष कहे जाते हैं।
      सतनाम संस्कृति गुरुमुख संस्कृति हैं। और यह गुरु शिष्य के द्वारा जनमानस में प्रचारित प्रसारित हैं।
    छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास से संदर्भित प्रथम लेखन उनके जाने या अन्तर्ध्यान १८५० के बाद १८६८-७० में महज १८-२० साल बाद किसी प्रत्यक्ष दर्शी के संस्मरण के आधार मि चिशोल्म ने गुरु घासी को इस छेत्र के असल आश्चर्य धोषित किया ।और उनके कार्य व प्रवृत्ति को यानि कि उनके  सतनाम जागरण  को जमीदोंज बताया।
        आजादी के आन्दोलन के दरम्यान उनके वंशज गुरु अगम दास जी ने १९२०-२२ में  गुरु घासीदास चरित का लेखन सतनामदास व पं सुखीदास से करवाया और इसी सुन्दरलाल शर्मा ने भी गुरुघासीदास  सतनामी पुराण  लिखा ।
    १९२५ में कलकत्ता से  सतनाम सागर प्रकाशित हुआ ।
    इस तरह यह प्रकाशन में पहला सतनामी साहित्य हुआ।हालांकि लेखन में पहले से हो चुका था।
    कलान्तर में मनोहरदास नृसिंह ने गुरुघासीदास चरित नामायण लिखा उसे उनके व्याख्याता  पुत्र खेमराज नृसिंह एम ए हिन्दी ने  जी ने व्यवस्थित व संपादित  करते महाकाव्यात्मक स्वरुप दिया। यह सतनामी समाज के प्रथम महाकाव्य होने का गौरव अर्जित किया।
  वर्तमान में  सतनाम साहित्य ८-१० महाकाव्य और २५०-३०० पुस्तक पंथी संग्रह एंव  पत्र पत्रिकाएं उपलब्ध हैं।
       गिरौदपुरी मेला का पाम्लेट  १९३५  प्राप्त है ।जिसमे दुर दुर से दर्शनार्थी आने के उल्लेख है। अत: इससे पूर्व ही मेला  संचालित हैं। और संत समाज गुरु बाबा से संदर्भित सभी स्थल ढून्ढे जा चुके थे भले उनका अपेक्षित विकास बहुत बाद में हुआ।
    इस तरह देखे तो सतनाम सर्वव्यापी हैं। इनके सुमरन से मन हृदय बुद्धि में बड़ा ही सकरात्मक प्रभाव पड़ता हैं। व्यक्ति को प्रकृति से जोड़ता हैं। शोषण विहिन और समानता से युक्त  समाज निर्माण में इनका योगदान अप्रतिम हैं। साथ ही अनेक जुल्मों के प्रकरान्तर संधर्ष करते प्रतिकार करने और  मर्मान्तक पीड़ा सहने की शक्ति देकर  व्यक्ति विश्वकल्याण की ओर प्रयाण कराता हैं।
   -डा अनिल भतपहरी
जुनवानी , "सतश्री "सेन्ट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छग

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