कुछ समय से नहीं बल्कि जब से मनुष्य को वर्ण जाति गोत्र आदि में बाटी गई और उन्हें शास्त्र सम्मत घोषित किए गए तब से कहते आ रहें हैं। सर्वाधिक पढ़े सुने जाने वाले मानस में स्पष्ट लिखा है _
जे वर्णाधम तेली कुम्हारा,स्वपच किरात कोल कलवारा ।
ये जातियां चारों वर्ण से भी अधम हैं यानि अंतिम वर्ण शूद्र से भी नीचे। फिर भी यही समुदाय इसे भजन बनाकर नाच गा रहे हैं उन्हें न अर्थ की समझ न भाव की। ऊपर से अपनी गाढ़ी कमाई दान दक्षिणा चढ़ावे में लूटा रहे हैं
इस तरह के अनेक उदाहरण ऋचा श्लोक दोहा चौपाई के रुप में कई ग्रंथों में उपलब्ध हैं।फिर भी इन्हीं उत्पीड़ित जातियों को वह अत्यंत प्रिय हैं। यही तबका सर आंखों में बिठाए हुए हैं।
हिंदू धर्म में जन्मना जातपात और उनमें अमानवीय उच्च नीच भेदभाव के जनक उनके कथित शास्त्र और धर्मग्रंथ हैं। उसे ही आदर्श बनाकर ढोते आ रहें है।
यदि देश में समानता और समरसता चाहिए तो इन में लिखी गई आपत्तिजन्य अग्राह्य चीजों को विलोपित करें या प्रतिबंधित। जब संविधान संशोधित हो सकते हैं तब तत्कालीन परिस्थिति को देखते लिखी गई पुस्तकें क्यों नहीं?आखिर किसी भी मानव समुदाय को कोई दूसरा मानव समुदाय केवल उनकी जाति के आधार पर सार्वजनिक रुप से भेदभाव करें और इसके केन्द्र में ऐसे पुस्तक जो धर्मग्रंथ के रुप में जाने समझे जाते हो। उनका परित्याग आवश्यक हैं। इनके लिए जनांदोलन और व्यापक मांग बहुसंख्यक शूद्र वर्ण के लोगों को करना चाहिए जिसमें 6000से अधिक जातियां हैं और उन्हें गाहे बगाहे उनकी हैसियत बताएं जाते हैं। आखिर चंद लोगों में ऐसा करने का दुस्साहस आते कहा से हैं? आप जैसे विचारक कथाकारों को तो गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए। बल्कि काल्पनिक और मिथकीय चीजों में समय नष्ट करने के बजाय अपनी वॉक कला और प्रभाव को सामाजिक क्रांति में लगानी चाहिए।
मानव मानव एक समान जात पात का मिटे निशान मिशन में काम करना चाहिए। भेदभाव को बढ़ावा देने वाली शक्ति और तत्वों से संघर्ष करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment