Saturday, March 29, 2025

विनोद कुमार शुक्ल और उनकी रचनाएँ

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विनोद शुक्ल जी और उनकी रचनाएँ 

.     सरल शब्द विन्यास और कविताएं सर्व साधारण के लिए होते हैं जैसे मंचीय कवि एक साथ हजारों तक अपनी बातें पहुंचा कर मनोरंजन और ज्ञानार्जन भी करा देते हैं.हालांकि उन्हें कवि कम स्टेण्डप कामेडियन कहना अधिक न्याय संगत हैं जैसे के.के. नायकर, राजू  श्रीवास्तव,जानी लिवर,शेखर सुमन इत्यादि. 
परन्तु  कवि विनोद शुक्ल जी  की शब्द विन्यास और कविताएं सरल होते हुए भी उनमें विशिष्ट भाव व्यंजित होते हैं, उसे समझने के लिए समझ की जरुरत पड़ती हैं.सर्व साधारण के लिए यें नहीं जान पड़ते. इसलिए उनकी कविताएं मंच के अनुकूल नहीं बल्कि क्लास रुम के लिए हैं.

शुक्ल जी की हस्ताक्षर नुमा  उनकी प्रसिद्ध कविता देखिये क्या इसे किसी गणेश, नवरात्रि  या  मेले- मड़ाई के मंच सें पढ़ी जा सकती हैं? 

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था 
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था। 
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया 
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

इसलिए उनकी कविताएं सरल होते भी आसानी सें समझ न वाली भाव सें अनुगुंफित हैं उसे वेद उपनिषद की ऋचाओ, कबीर की उलट बासी या केशव की क्लिष्टता या गीतांजलि की रहस्यमी पंक्ति, अज्ञेय,मुक्तिबोध की असाध्य वीणा,अँधेरे मे जैसी कविताओं की तरह टीका या व्याख्या की जरुरत पड़ती हैं.

बहरहाल हम आधुनिक होने की कितना भी दम्भ भर लें पर 
21 वीं सदी मे भी  रंग लिंग जाति भेद भाव  मानव प्रजाति  मे किस तरह भयावह हैं यह  सुदूर बस्तर मे  देखें जा सकते हैं.जहाँ उनके लोगों सें इतर बाहरी आदमी चाहे वह उनके लिए ही व्यापार या  काम के हो कैसे वह शोषण और जुल्मादि को अंजाम देते हैं.
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
पर महुवा लेकर गीदम के बाजार
जाने से डर लगता हैं

क्योंकि बाजार मे तरह तरह के लोग हैं और आज भी आदमी के लिए अजनबी आदमी ही सबसे बड़े दहशत का कारक हैं.चाहे स्त्री हो या पुरुष.

 उनकी कविता  'जंगल के उजाड़ में जरुरतमंद के घर जरुरत की चीजें आना कितना दुश्वार हैं बल्कि प्यासा कुआँ के पास जाना चाहिए जैसे नियम शर्त हैं और उसी आधार पर  जटिल कठिन जीवन जिसे सदियों सें लोग ढ़ोते आ रहें  हैं.चाहे गाँव हो या शहर.
कांदा खोदते खोदते 
भूख से बेहोश पड़े 
आदिवासी के लिए 
कौन डॉक्टर को बताएगा? 

इसका जवाब देते वे उपस्थित हैं-
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे' की कुछ पंक्तियां देखिए: 

जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊंगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी
मेरे घर नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊंगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा

उफनती नदी का बिम्ब और प्रतिमान को समझे बिना क्या कोई उक्त पंक्ति का सहज अर्थ कर सकते हैं? और फिर क्या वे उफनती नदी देखें भी हैं? 

कविता की तरह ही हाथी पर बैठेंगे क्या? मे उनकी रम्य गद्य रचना देखिये - 
    
   
    रघुवर प्रसाद ऑटो का रास्ता देख रहे थे। दूर से रघुवर प्रसाद ने हाथी को आते देखा। रघुवर प्रसाद को लगा यहां खड़े होने से जैसे चार ताड़ के पेड़ दिखाई देते हैं। उसी तरह यहां खड़े होने से हाथी भी दिखाई देता है। फर्क इतना था कि ताड़ के पेड़ वहीं खड़े होते जबकि हाथी आता दिखाई देता था। आता हुआ हाथी सामने रुक गया। साधु हाथी की पीठ पर बंधी रस्सी के सहारे उतरा। रघुवर प्रसाद को लगा कि साधु पान की दुकान से तंबाकू-चूना लेने आया हो या चाय की दुकान पर चाय पीने। वह साइकिल की दुकान नहीं जाएगा। ऐसा नहीं था कि हाथों के पैर की हवा निकल गई हो। हवा भरवाने की उसको मंशा नहीं होगी। साधु तंबाकू मलता हुआ रघुवर प्रसाद के पास खड़ा हो गया।
.   कोई कह भी सकता हैं कि हाथ पैर की हवा निकल गई बाल सुलभ सा वर्णय क्यों? 
और अंत मे क्या सचमुच कवि और हम सब आदमी या मनुष्य को जान समझ पाए हैं?

जो कुछ अपरिचित हैं
वे भी मेरे आत्मीय हैं
सब अत्मीय हैं
सब जान लिए जाएँगे मनुष्यों से
मैं मनुष्य को जानता हूँ।

तब एक ही रास्ता बचता हैं संतो की तरह पारस सम समदर्शी हो जाना. वो बधिक के लोहे के कटार और मंदिर के लोहे की घंटे को भी सोना बनादे. सबसे प्रेम  करो भले आपसे कोई करें न करें. सबको आत्मीय समझो पर आजकल कौन  हैं जो सबको ऐसा समझ रहें  हो?

.     भले सर्व साधारण की बातें उनकी रचनाओं में शामिल होते हैं.पर बिम्ब और प्रतिमान उन्हें असाधारण कर देते हैं.जैसे चेंदरु जंगल का लड़का हैं वन्य पशु पक्षी के सहचर हैं पर यही फिल्मांकित होकर असाधरण हो गये.या वन कन्याये महुये की टोकरी उठाई किसी पेंटिंग में बेशकीमती हो जाती हैं.

बहरहाल  शुक्ल जी मुक्तिबोध परम्परा के कवि हैं और उन्ही की तरह नये बिम्ब,प्रतिमान सें युक्त उनकी कविताएं प्रेरक, उदात्य और अकादमिक स्तर का हैं इसलिए उन्हें ज्ञानपीठ मिला हैं. हम जैसों का सौभाग्य हैं कि उन्हें छात्र जीवन सें अब तक उन्हें देखने,सुनने और समझने का अवसर मिलते रहा हैं.

 कविवर को बधाई एवं स्वस्थ, सुखी रहने हेतु मंगलकामनाएं

डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, March 20, 2025

धर्म नहीं मत पंथ महत्वपूर्ण हैं

मानव के साथ हिन्दू बौद्ध जैन मुस्लिम ईसाई धर्म लगना भी अव्यवहारिक है.
असल में इस नाम सें कोई धर्म रहा नहीं न ही रहना चाहिए..हाँ यह सब मत धम्म पंथ मजहब रिलीजन मात्र हैं जिसे धर्म का पर्याय मान लिए गये हैं या माना जा रहा हैं जोकि गलत हैं.
धर्म किसी वस्तु या व्यक्ति या प्राणी में मिलने वाली गुण- अवगुण प्रवृत्ति है जिसे वह धारित कर रखा है.
असल में मानव समुदाय के मत मजहब पंथ  रिलीजन प्रणाली पद्धति लिखित /अलिखित होते है जिसके अनुरुप जीवन निर्वाह किए जाते है.यह परिवर्तनीय और ऐक्छिक भी है.नाहक धर्म जो गुण अवगुण आदि को इन के साथ मिलाकर भ्रम फैलाये गये है. धर्म शब्द को व्यक्ति के सामूहिक पहचान के प्रयोग में लाना ही नहीं चाहिए इसे प्रतिबंधित भी कर देना चाहिए.क्या गाय हाथी शेर चींटी मछली चिड़िया जैसे प्राणी और पेड़ फूल टेबल टीवी मोबाईल कार बाइक आदि का कोई धर्म है? तो नीरा मनुष्य नामक प्राणी का धर्म क्यों? हाँ वह समूह में रहता है तो उस समूह समुदाय का मत पंथ मजहब रिलीजन जरुर होते है.
मत पंथ भी गुरु घासीदास जी के कथननुसार होना चाहिए -
अवैया ल रोकन नहीं जवाइयां ल टोकन नहीं. जबरिया किसी पर थोपने और जो है उसे जबरिया बांध कर रखने की आवश्यकता भी नहीं.

Wednesday, March 19, 2025

सतनाम रावटी दर्शन यात्रा

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सतनाम रावटी दर्शन यात्रा 

सतनाम रावटी नौ धामों का हुआ दर्शन ।
कृपा सद्गुरु की पाकर मन हुआ पावन।।
इन रमणीय जगहों पर किया गुरु ने रमन ।
जन को‌ नाम-पान देने इनका किया चयन ।।
करे सभी नर-नारी इन पावन धामों का दर्शन।
मिले सुख शांति उन्हे अरु हो धन्य यह जीवन ।।

                  ।।सतनाम ।।
          डा. अनिल भतपहरी
नौ सतनाम रावटी धाम निम्नवत है - 
१ चिरईपदर २ दंतेवाड़ा ३ कांकेर ४ पानाबरस ५ डोंगरगढ़ ६ भंवरदाह गंडई ७ भोरमदेव ८ रतनपुर ९ दल्हापहाड़ अकलतरा ।
      इ‌न जगहों पर परिजन व इष्टमित्र सहित चारो धाम या हज यात्रा सदृश्य परिभ्रमण करना चाहिए ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का सर्वत्र व्यापक प्रचार प्रसार हो सकें नई पीढ़ी इन ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों के बारे में वास्तविक रुप सें जान - समझ सकें।

Monday, March 17, 2025

सहोदरा जस पचरा

माता सहोदरा झांपी दर्शन मेला के पावन अवसर मं 

माता सहोदरा पचरा 

पिता गुरुघासीदास माता तोर हे सफरा 

जोर जस गावन सुघ्घर माता सहोदरा 

दाई ददा के दुलौरिन बेटी तहु सतधारी 
दुनो कुल के नाव रोशन करे शक्ति नारी 
दु मन आगर गावन तोरेच जस पचरा ...

ससुरार सुकली गांव बुधु देवान घर 
बसाए कुट कुट के कुटेला गाँव जबर 
हांका परगे दसकोसी मनखे बड़ अचरा ...

जुलुम रोके सेती नारी जागरन चलाये 
होरी जराई बंद कराके मंगल भजन कराये 
अड़ताफ होवन लागे तोर अबड़ चरचा ...

बोड़सरा बाड़ा सिरजे अठगंवा सुख धाम 
जिहां चले तोर हुकुम शोर उड़े सतनाम 
 तोर महिमा अपरंपार माता सहोदरा 

भागवंती दाई सहोदरा तोर  महिमा हे अपार 
राखे जतन के झांपी गुरु खड़ाऊ अउ कंठ हार 
काचा कलश बारे करे जग म ऊजियारा ...

      -डा. अनिल भतपहरी

Thursday, March 13, 2025

लड़की

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महिला दिवस (8 मार्च) पर 
 
"लड़की"

महुएँ की फूल है 
न जाने कब टपक पड़े 
ख़ानाबदोश है 
कब कहाँ डेरा पड़े
सच कहें तो
शीशी है इत्र की 
ढीली हुई डॉट 
कि गंधाती उड़ पड़े 
दहलीज़ फांदते ही 
ऊग आतें हैं 
असंख्य पर 
उड़ना चाहती हैं
वह भी 
स्वच्छंद आकाश पर 
पर...
पर कतर दी जाती हैं
कहकर कि तुम 
घर की इज्जत हो 
तुम्हारे बाहर जाने से
किसी से युँ ही
हँस बोल लेने से 
या किसी को शक्ल 
दिख -दिखा जाने मात्र से  
वह चली जाएगी 
जिसे पुरखों ने 
वर्षों प्रखर पराक्रम से 
अर्जित किया हैं
भले पुरुष 
और उनके परिवार
उसे भुनाते समृद्ध हो
किसी के इज्ज़त  
से खेलते रहे 
मान मर्दन कर 
अट्टहास करते रहें
पौरुष प्रदर्शन कर
उपहास करते रहे
हास- परिहास करते रहे
ऊपर से यह सूक्ति 
गज़ब की यह युक्ति 
बिन राग-रति,रंग के 
भव में बुड़े
और संग इनके 
भव से तरें  
पाते पुरुष मुक्ति 
नरक द्वार से 
गूंजते सुदूर कही 
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते  
रमन्ते तत्र देवता  !
तब मासूम सा 
एक सवाल 
कि देवी कैसे,
और कहाँ रमती है? 
तलाशती फिरती
सकल ब्रम्हाण्ड 
जारी है यात्रा...

दहलीज़ भीतर  
मुगालते में बाहर 
खाट पर बैठें 
लटकते ताले सदृश्य 
कठोर पुरुष 
भले वे हो लुंज -पूंज
घुत्त नशे में 
या हो अशक्त 
वृद्धा कोई जो 
कोमलांगी तो है 
पर ओढ़े हुए पौरुष
ढ़ोते हुए भार 
कठोर- कुरुप 
बेचारी लड़की
औरत बेचारी 
बेचारी नारी ..!!!

पिता ,पति- पुत्र 
के अधीन सदा 
नारी तेरी अधीनता 
रही है मर्यादा 
और यही है 
नारी की अस्मिता 
नारी की गौरव गान 
बालबिल कुरान गीता
गाई गयी असीम महिमा 
पर कहीं न कहीं 
है एक घड़ा रीता 
तलाशती स्वयं अपनों में 
अपनी ही अस्मिता 
द्रौपदी रुक्मणी राधा 
सीता अहिल्या सूर्पनखा   
लोई आमिन यशोधरा 
मरियम रजिया सफरा 
मिनीमाता राजमोहिनी इंदिरा 
नर्गिस मीनाकुमारी दिव्या 
सुरुज तीजन आशा लता 
कल्पना किरण सुषमा 
ऊषा मेरीकाम माया ममता 

बनकर माँ बेटी बहन बहु 
पुत्र पुत्री में हैं एक ही लहू 
तब भेद क्यों अलग किनारा 
उतरना हैं पार एक ही सहारा 
नर नारी हैं परस्पर पूरक 
एक दूजे का सहयोगी उद्धारक 

-  डॉ.अनिल भतपहरी/ 9617777514

चित्र -जीवन संगिनी श्रीमती अनीता भतपहरी (उसे ही समर्पित यह कविता । )

Wednesday, March 12, 2025

पानी नइये

"पानी नइये" 

का कहव संगी मय  का सुनब संगी तय 
कहे सुने के अब तो कहानी नइये 
तोर मोर बीच गाथा  सुहानी नइये
बस गरजना हाबे बादर म पानी न इये 

मारत  फुटानी टूरा बरा भजिया ल खाथे
फेर काबर करर्स लें काचा मिरचा ल चाबे 
चिरपुर बड़ देख बिचारा कइसें कलबलागे 
हद होगे होटल म पानी नइये बोतल म पानी नइये ...

असनादे खुसरे समारु अपन नहानी घर म 
चुपरत साबुन मगन गावे गीत सुहानी घर म 
आंखी मं परे गेजरा नल पोछत पंछा म चेहरा  
बाल्टी मं पानी नइये डोलची म पानी नइये ...

लगिन के नेवता भेजे हवे समयदास 
जिहा दार भात उहा पहिदे माधोदास 
दमकाते साठ थारी भात रेन्गे बाहिर सोज्झी घाट 
नरवा म पानी नइये तरिया म पानी नइये ...

हमर पारा के पंचू भाई बनगे हवे पंच 
फटफटी म किंदरत हे मंदहा सरपंच संग 
मंत्री साहेब मन संग चलत हवे परपंच
मुड़ी कटइय्या जनता बर कोनो राजा रानी नइये ...

चल बने टूरी मन होवत हे टूरा मन ले आघु 
फेर उकर करसतानी ले इकर करसतानी आघु 
चुंदी नइये न फूंदरा अउ हवे मुड़ ह उघरा 
बराबरी के चक्कर मं करे काम अलकर 
बरदानी ओकर आचर फेर निरलजई होत काबर
आंखी मं अब तो पहली कस  लाजवानी नइये 
जवानी तो हे फेर जवानी के रवानी नइये ...

का कहंव संगी मंय का सुनब संगी तंय 
कहे-सुने के कोन्हों कहानी नइये
अब तोर-मोर गाथा सुहानी नइये 
बस गरजना हवे बादर मं पानी नइये ...
अब तोर मोर बीच गाथा सुहानी नइये 
बस गरजना हवे बादर मं पानी नइये

डा अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४

होरी सें होरा

#anilbhattcg 

होरा से होरी

ख़रीफ फ़सल आई घरद्वार
उससे मिली खुशियाँ आपार
प्रकृति में भी  छाई हैं  बाहर
युवा हृदय मे जगनें लगे प्यार
जगति तल में यही तो हैं  सार
प्रेम -रंग हीन यह जीवन बेकार

-डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

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