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विनोद शुक्ल जी और उनकी रचनाएँ
. सरल शब्द विन्यास और कविताएं सर्व साधारण के लिए होते हैं जैसे मंचीय कवि एक साथ हजारों तक अपनी बातें पहुंचा कर मनोरंजन और ज्ञानार्जन भी करा देते हैं.हालांकि उन्हें कवि कम स्टेण्डप कामेडियन कहना अधिक न्याय संगत हैं जैसे के.के. नायकर, राजू श्रीवास्तव,जानी लिवर,शेखर सुमन इत्यादि.
परन्तु कवि विनोद शुक्ल जी की शब्द विन्यास और कविताएं सरल होते हुए भी उनमें विशिष्ट भाव व्यंजित होते हैं, उसे समझने के लिए समझ की जरुरत पड़ती हैं.सर्व साधारण के लिए यें नहीं जान पड़ते. इसलिए उनकी कविताएं मंच के अनुकूल नहीं बल्कि क्लास रुम के लिए हैं.
शुक्ल जी की हस्ताक्षर नुमा उनकी प्रसिद्ध कविता देखिये क्या इसे किसी गणेश, नवरात्रि या मेले- मड़ाई के मंच सें पढ़ी जा सकती हैं?
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था।
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
इसलिए उनकी कविताएं सरल होते भी आसानी सें समझ न वाली भाव सें अनुगुंफित हैं उसे वेद उपनिषद की ऋचाओ, कबीर की उलट बासी या केशव की क्लिष्टता या गीतांजलि की रहस्यमी पंक्ति, अज्ञेय,मुक्तिबोध की असाध्य वीणा,अँधेरे मे जैसी कविताओं की तरह टीका या व्याख्या की जरुरत पड़ती हैं.
बहरहाल हम आधुनिक होने की कितना भी दम्भ भर लें पर
21 वीं सदी मे भी रंग लिंग जाति भेद भाव मानव प्रजाति मे किस तरह भयावह हैं यह सुदूर बस्तर मे देखें जा सकते हैं.जहाँ उनके लोगों सें इतर बाहरी आदमी चाहे वह उनके लिए ही व्यापार या काम के हो कैसे वह शोषण और जुल्मादि को अंजाम देते हैं.
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
पर महुवा लेकर गीदम के बाजार
जाने से डर लगता हैं
क्योंकि बाजार मे तरह तरह के लोग हैं और आज भी आदमी के लिए अजनबी आदमी ही सबसे बड़े दहशत का कारक हैं.चाहे स्त्री हो या पुरुष.
उनकी कविता 'जंगल के उजाड़ में जरुरतमंद के घर जरुरत की चीजें आना कितना दुश्वार हैं बल्कि प्यासा कुआँ के पास जाना चाहिए जैसे नियम शर्त हैं और उसी आधार पर जटिल कठिन जीवन जिसे सदियों सें लोग ढ़ोते आ रहें हैं.चाहे गाँव हो या शहर.
कांदा खोदते खोदते
भूख से बेहोश पड़े
आदिवासी के लिए
कौन डॉक्टर को बताएगा?
इसका जवाब देते वे उपस्थित हैं-
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे' की कुछ पंक्तियां देखिए:
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊंगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी
मेरे घर नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊंगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा
उफनती नदी का बिम्ब और प्रतिमान को समझे बिना क्या कोई उक्त पंक्ति का सहज अर्थ कर सकते हैं? और फिर क्या वे उफनती नदी देखें भी हैं?
कविता की तरह ही हाथी पर बैठेंगे क्या? मे उनकी रम्य गद्य रचना देखिये -
रघुवर प्रसाद ऑटो का रास्ता देख रहे थे। दूर से रघुवर प्रसाद ने हाथी को आते देखा। रघुवर प्रसाद को लगा यहां खड़े होने से जैसे चार ताड़ के पेड़ दिखाई देते हैं। उसी तरह यहां खड़े होने से हाथी भी दिखाई देता है। फर्क इतना था कि ताड़ के पेड़ वहीं खड़े होते जबकि हाथी आता दिखाई देता था। आता हुआ हाथी सामने रुक गया। साधु हाथी की पीठ पर बंधी रस्सी के सहारे उतरा। रघुवर प्रसाद को लगा कि साधु पान की दुकान से तंबाकू-चूना लेने आया हो या चाय की दुकान पर चाय पीने। वह साइकिल की दुकान नहीं जाएगा। ऐसा नहीं था कि हाथों के पैर की हवा निकल गई हो। हवा भरवाने की उसको मंशा नहीं होगी। साधु तंबाकू मलता हुआ रघुवर प्रसाद के पास खड़ा हो गया।
. कोई कह भी सकता हैं कि हाथ पैर की हवा निकल गई बाल सुलभ सा वर्णय क्यों?
और अंत मे क्या सचमुच कवि और हम सब आदमी या मनुष्य को जान समझ पाए हैं?
जो कुछ अपरिचित हैं
वे भी मेरे आत्मीय हैं
सब अत्मीय हैं
सब जान लिए जाएँगे मनुष्यों से
मैं मनुष्य को जानता हूँ।
तब एक ही रास्ता बचता हैं संतो की तरह पारस सम समदर्शी हो जाना. वो बधिक के लोहे के कटार और मंदिर के लोहे की घंटे को भी सोना बनादे. सबसे प्रेम करो भले आपसे कोई करें न करें. सबको आत्मीय समझो पर आजकल कौन हैं जो सबको ऐसा समझ रहें हो?
. भले सर्व साधारण की बातें उनकी रचनाओं में शामिल होते हैं.पर बिम्ब और प्रतिमान उन्हें असाधारण कर देते हैं.जैसे चेंदरु जंगल का लड़का हैं वन्य पशु पक्षी के सहचर हैं पर यही फिल्मांकित होकर असाधरण हो गये.या वन कन्याये महुये की टोकरी उठाई किसी पेंटिंग में बेशकीमती हो जाती हैं.
बहरहाल शुक्ल जी मुक्तिबोध परम्परा के कवि हैं और उन्ही की तरह नये बिम्ब,प्रतिमान सें युक्त उनकी कविताएं प्रेरक, उदात्य और अकादमिक स्तर का हैं इसलिए उन्हें ज्ञानपीठ मिला हैं. हम जैसों का सौभाग्य हैं कि उन्हें छात्र जीवन सें अब तक उन्हें देखने,सुनने और समझने का अवसर मिलते रहा हैं.
कविवर को बधाई एवं स्वस्थ, सुखी रहने हेतु मंगलकामनाएं
डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514