Sunday, January 26, 2025

गणतंत्र पर्व में राजपथ पर रामरामी

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||गणतंत्र पर्व में राजपथ पर रामरामी ||

.   रमरमिहा जिसे रामरामी और अब रामनामी कहें जाने जाने लगे हैं इनका अस्तित्व 1890-1900 के आसपास हुआ. एक वैष्णव बैरागी द्वारा बोतलदा पहाड़ रायगढ़ में साधना करते हुए राम नाम का प्रचार करने की ईच्छा सें हुई.साथ ही पुस्तक छपाई की मशीन सें जब "रामचरित मानस " प्रकाशित हुई तब उनके प्रचारक उत्तर प्रदेश सें बांसुरी और गुटका लेकर शिवरीनारायण क्षेत्र में आये.समीप चारपारा,ओड़काकानन के सम्पन्न कृषक परशुराम भतपहरी (भारद्वाज ) और उनके मितान को विश्वास में लेकर उनके मस्तक में रामराम लिख कर सतनाम धर्म में रामरामी पंथ का प्रवर्तन कराया गया.ताकि सतनाम के साथ रामराम का मणीकांचन युति हो सकें.परन्तु संकीर्ण विचारों और साम्प्रदायिक मान्यताओं नें इसें पल्ल्वित - पुष्पित नहीं होने दिया. पूर्वर्जो की देन और जो स्थिति हैं उसी में जीवन वृत्त की चाह नें इन्हें बचाकर रखें हुए हैं.

.      गुरु घासीदास प्रवर्तित सतनाम धर्म के वृहत प्रभाव सें राम चरित मानस के राम "रामराम " होकर निर्गुण स्वरुप में  इन लोगों के आराध्य हो गये.सादगी पूर्ण जीवन शैली और हर कार्य व्यवहार में " रामराम "का सम्बोधन इस मत की विशेषता हैं. इनके धार्मिक अनुष्ठान में गाये जाने वाली भजन ,घूँघरु की मधुर धुन सें विधुन नृत्य सें एक अलग तरह की भाव भक्ति वाली संस्कृति  प्रचलित हुई . पर यह नवाचार रामभक्त हिन्दुओं को पसंद नहीं आई न सतनामियों  को  फलस्वरूप इनके जाति प्रमाण पत्र नहीं बन सकें और शासकीय सुविधाओं सें वंचित भी रहें. मुख्यतः कृषि वृति वाले दो तीन ब्लॉक में रहने वाले अनुयाई सतनामियों के मध्य मानवता वादी दृष्टिकोण के ही कारण न्यूनतम रुप में अस्तित्वमान हैं. भले यह समुदाय दो पाटन के बीच में पीसाते आ रहें हैं.मुझे तो बचपन सें विगत 50 वर्षों सें इनके बीच रहते और इनके जिजीविषा को जानने समझने का अवसर मिला हैं.

वर्तमान में नख -शिख  वाले सर्वांग रामरामी केवल गिनती 250  के आसपास ही बचें हैं.1992 में बाबरी मस्जिद ढहने और राम मंदिर राष्ट्रीय मुद्दा बन जाने तथा भाजपा एवं बसपा के अभ्युदय सें  इस समुदाय को महत्व मिलने लगा.नई पीढ़ी के लोग रामरामी चादर ओढ़कर वर्ष में दो -दो बार भजन मेला और अन्य कार्यक्रम करनें लगे है. पत्रकारों रचनाकारों और शोधार्थियों का ध्यान भी आकृष्ट हुआ और छिटपुट लेखन आरम्भ हुआ.
.     गणतंत्र दिवस समारोह में प्रथम बार सम्मलित होने सें रामरामी पंथ को देश भर में जाने जायेंगे.शासन -प्रशासन भी इनकी सुधि लेंगे और अनेक तरह की समस्याओं सें घिरें समुदाय का भला होगा, ऐसी उम्मीद कर सकतें हैं.

विगत वर्ष रामरामी लोगों के प्रतिनिधि मंडल के साथ कुछ पल व्यतीत किए और उनके संस्मरण फेसबुक में पोष्ट किए अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं.

।। रामनामी ।।

      छत्तीसगढ़ की विविधतापूर्ण संस्कृति में रमरमिहा यानि रामनामी सम्प्रदाय का विशिष्ट योगदान हैं। इनकी उपस्थिति और इनके कर्णप्रिय मधुर नुपुर ध्वनि युक्त भजन की प्रस्तुति अनुपम हैं।
         कलियुग नाम आधारा  सदृश्य सतनाम भजन , रामराम भजन या हरे राम हरे कृष्ण संकीर्तन भजन महानदी तट के इर्द- गिर्द विकसित सुमरिन भक्ति अनुष्ठानिक आयोजन हैं। शिवरीनारायण सांरगढ़ सरसीवा परिक्षेत्र के अनेक ग्रामों में इनके बसाहट हैं। अपनी विशिष्ट उपसना पद्धति व जीवन शैली से यह समुदाय पृथक ढंग से पहचाने जाते हैं।वर्तमान में यह अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं।
       
          "निर्गुण निराकार रामराम का उपासक समुदाय  अपने साकार शरीर को ही मंदिर सदृश्य बनाकर अपने अराध्य रामराम को‌ हृदय में बसाकर शांतिप्रिय जीवन निर्वाह करते आ रहें हैं।"इनकी सादगीपूर्ण जीवन शैली रहन- सहन एंव संस्कृति  पर अनुसंधान व अकादमिक काम करने देश- विदेश से अनुसंधाता आते रहे  हैं। 
        रामनामी  समाज  प्रमुख गुलाराम रामनामी का कहना है कि " देश भर से  अनेक शोधार्थी  एंव लगभग 25 देशों से लोग  मिलने आ चूके हैं।अनेक डाक्युमेंट्री बनाये व  साक्षात्कार  आदि लिए गये हैं।राममय देश में आज पर्यन्त यह लोग मुलभूत समस्याओं से वंचित हैं।  परस्पर चंदा बरार कर यहां तक जमीन आदि बेचकर बड़े भजन मेला व अपना धार्मिक व  सांस्कृतिक आयोजन करते आ रहे हैं। कोई विशिष्ट धार्मिक स्थल सामुदायिक भवन या ईमारत आदि नहीं हैं।"
   वर्तमान में सर्वांग यानि नख शिख रामनामी गिनती‌ के बचे हैं। न ई पीढ़ी सर्वांग रामनामी नही बन रहे हैं।
    इनके उद्गम भूमि चारपारा गांव है जहां के  गौटिया परसराम भारद्वाज जी ने  1900 के आसपास इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया । ओड़काकानन नामक गांव भी‌ रामनामियों का केन्द्र हैं  इन जगहों का  समुचित विकास कर‌ इस विलुप्त होती संस्कृति का संरक्षण किया जा सकता हैं।

डॉ.अनिल भतपहरी / 9617777514

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