Wednesday, February 28, 2024

मांघ पूर्णिमा मेला महात्मय

#anilbhatpahari 

।।मांघी पुन्नी मेला महात्म्य ‌।।

जलाशयों व नदियों के किनारे ही सभ्यताएँ पनपी क्योंकि जल ही जीवन हैं।हमारे यहाँ नदियाँ दैवी स्वरुपा पूज्यनीया हैं फलस्वरुप इनकी तट पर अपने अपने आराध्यों की मंदिर मठ आश्रम आदि बने ।
इन स्थलों  पर अनेक तरह की सामाजिक / धार्मिक   गतिविधियां व कर्मकांड आदि होने लगे । राज तंत्र में  जो राजा  जिनका उपासक रहा वह लोक धर्म हो गया। धीरे- धीरे उन सबमें वर्चस्व के लिए संघर्ष और समन्वय भी हुआ।
   छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी महानदी है जहाँ दो  स्थलों पर संगम हैं। राजिम  व शिवरीनारायण यह दोनो  प्रयागराज  ( इलाहाबाद ) जैसे ही महत्ता रखते हैं । मध्य में दक्षिण कोशल की  राजधानी सिरपुर रहा है। यहाँ की ख्याति वैश्विक हैं।अनेक शोधार्थियों  के लिए सिरपुर जीवंत दस्तावेज़ हैं। इन तीनों जगहों पर मांघी पुन्नी से   महाशिवरात्रि तक  १५ दिनों तक मेला सदियों से भरते आ रहे हैं। यहाँ से वाणिज्य व्यापार आदि प्राचीन काल से ही चला आ रहा हैं।  तीनो नगरी जलमार्ग का प्रमुख केन्द्र थे । सिरपुर के निकट मालपुरी बड़ा बंदरगाह हैं जो हमारे गांव जुनवानी से लगा हुआ है। कृषि कार्य निपटने के बाद कृषक वर्ग इन पंद्रह दिनो की मेले में जरुरत की चीजे खरीदने परस्पर रिश्तेदारी आदि करने भी इकत्रित होते हैं। इस तरह  मेला की संस्कृति पनपा। बाद में स्नान पूजा भेंट दान दक्षिणा आदि  की प्रथा जुड़ते गये ।
    राजिम नाम वहाँ की तेल व्यवसायी भद्र महिला राजिम तेलीन के कारण हुआ ऐसा जनश्रुति /किंवदंती हैं। 
    राजिम  को  राजीव समझ कमल क्षेत्र कहने‌ की परंपरा आजकल आरम्भ हो गये  हैं। चांपाझर का चपेश्वर महादेव मंदिर स्थल आजकल चंपारण्य के नाम से महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्म स्थली के रुप में चर्चित हैं। जो कि सुदूर गुजरात का प्रमुख राधा कृष्ण सम्प्रदाय के संत हैं।  वहाँ गुजराती समाज द्वारा भव्यतम निर्माण दर्शनीय हैं। दर असल राजिम को राजीव का अपभ्रंश मानते हैं। 
       राजीव लोचन कहकर विष्णु या राम मंदिर होने की बातें वैष्णव सम्प्रदाय की हैं। और भोसले शासक वैष्णव पंथी होने के कारण वहाँ मंदिर बनवाए गये जबकि राजिम लोचन नाम का आशय श्रमण महिला राजिम और श्रमणों के अराध्य लोचन यानि बुद्ध का नाम हैं। 
   बुद्ध की प्राचीन मूर्तियाँ सर्वत्र मिलते हैं। संभवतः जिस मूर्ति में राजिम अपना तेल पात्र रखती वह बुद्ध का ही प्रस्तर प्रतिमा रहा है। इस तरह राजिम लोचन नाम जनमानस में प्रसिद्ध हुआ। राजीव लोचन भगवान राम या विष्णु को भी कहे जाते हैं। यहां संगम के समीप कुलेश्वर महादेव भी स्थापित हैं।  राजिम कुंभ कल्प के नाम से विराट मेला लगते है ।
 मांघी पूर्णिमा को उत्तर भारत के महान संत रैदास  जी का जन्म हुआ। उनकी जयंती भी देश भर में उनके करोड़ो अनुयाई मनाते हैं। वे मानवतावादी  प्रज्ञावान संत थे और सबके कल्याण की कामना करते अनेक ज्ञानवर्धक पदों की रचनाएँ की जो कि गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं । गुरुनानक  जैसा ही उनका  सम्मान सिख एंव हिन्दू  धर्म  में हैं। 
     बहरहाल मनोरम तीर्थ सबके होते  है फलस्वरूप सभी मत -मतान्तरों की स्थापनाएं होते गये।शैव पंथ  यहाँ प्राचीनतम हैं और शिव मंदिर  अधिकांश गांवों की तालाब नदी किनारे स्थापित हैं। शैव है वहाँ शाक्त उपसना भी होन्गे। अत एव जन जीवन में देव - देवी  मानने की प्रथाएँ विकसित हुई । उनकी अनेक मूर्तियाँ बनने  व स्थापित होने लगी । हालांकि बहुत बाद में इन मूर्तियों या साकार स्वरुप  के स्थान पर निराकार या प्रतीक पूजा का भी विधान प्रचलन में आया।
   इस तरह हिन्दुओं की तीनो पंथ और बौद्ध धम्म आधुनिक में कबीर व सतनाम पंथ  (जो कि अधिकतर प्राचीन बौद्ध मतावलंबी थे जिन्हे उपेक्षित रखा गया उन्हे संतो गुरुओ ने पुनश्च संगठित किए )का मठ मंदिर गुरुद्वारा व  जैतखाम आदि छत्तीसगढ़ के सभी प्रमुख जगहों पर हैं। क्योंकि यहाँ हिन्दू सतनामी कबीर पंथी परस्पर सद्भाव व सौहार्दपूर्ण स्थिति में गांव गांव मेंं संग  साथ निवास करते आ रहे हैं। उनमें संघर्ष, द्वंद व समन्वय भाव भी यदा-कदा द्रष्ट्व्य है ,क्योंकि भिन्न  भिन्न मत  पद्धति  व विचार धारा में टकराहट संभाव्य हैं।  परन्तु हमारे संतो ,गुरुओं और बुजुर्गों की सीख के चलते एंव  इन मेले उत्सव आदि के कारण  हमारी साझा व समन्वयवादी संस्कृति विश्व विख्यात हैं। छत्तीसगढ़ का यह सौख्य व सौहार्द भाव अभिनंदनीय हैं।

    - डॉ. अनिल भतपहरी /9617777514

Friday, February 16, 2024

सुवागत गीत

परिस 

परिस चरन तुहर हमर अंगना 
दुमन आगर  सुवागत हे पहुना ..

आये ल तुहरेच ये मन हरियागे 
संसो फिकर के चिरई ह उड़ियागे 
कुलकत गावत मगन नाचे मन हा ...

पाबो असीस तुहर बोली बचन के 
उजराही कजराहु ह  अंतर मन के 
बनही बनौकी कट जाही अल्हन गा ...

Thursday, February 15, 2024

देवारों की लोकगाथा में छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक विश्लेषण

शोध संक्षेप 


देवारों की लोकगाथा में छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक विश्लेषण 
        - डा. अनिल कुमार भतपहरी 

प्राचीन भारत में  राजतंत्र रहा हैं और राजाओं नें अपनी कल्याणकारी योजनाओं के साथ साथ अपने राजवंश की शौर्य पराक्रम की कहानी गाथाओं को प्रचार -प्रसार करने के लिए अनेक तरह के कलावंत समुदाय को आश्रय देते थे। इसमें कुछेक प्रतापी राजाओं एंव  चक्रवर्ती सम्राटों ने तो विभिन्न विद्या में पारंगत " नव रत्न "रखने की परंपरा की नींव डाली  जो विक्रमादित्य से लेकर मुगल सल्तनत के शंहशांह अकबर तक और छत्रपति शिवाजी से लेकर कलचुरि नरेश  कल्याण साय तक मिलता हैं। 
  उन का अनुशरण राजतंत्र के घटक  राजा ,जमींदार , मंत्री, अमात्म सामंत , मालगुजार मंडल गौटिया भी करते थे । इन चारण भाट  ,देवारों को संसाधन व  धन आदि   सुविधाएं देकर पुरे राज्य में यहां तक राज्य के  बाहर भी कीर्ति यश गान करने रखते व भेजते  थे। इनमे  देवार लोग बड़ा  ही  मनोरंजक व रोचक  रुप देकर जनमानस में  नाच- गाकर  राजा के यश मान बड़ाई को प्रचार प्रसार करते थे। उन्हे अपेक्षित मान - सम्मान मिलते थें। देवार शब्द में देव शब्द छुपा हुआ हैं। देवताओं अर्थात् दाताओ  के जो जस, मान गाये वह देवार के नाम से विख्यात हुआ ऐसा प्रतीत होता हैं। 
     वर्तमान छत्तीसगढ़ के रतनपुर राज और रायपुर राज में अनेक देवार कलावंत समकालीन छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक वृतांत को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुतिकरण करते रहे हैं। इनमें चिंताराम देवार,रेखा देवार  जैसे  साधक साधिकाएं हैं।  यह गाथा गायक कलावंत एक समय राज महलों एंव सामंतों के बेहद करीब थे ।पर वर्तमान में यह तबका बहुत ही उपेक्षित और लगभग अस्पृश्य सदृश होकर रह गये हैं। रोजी रोजगार विहिन और एक जगह टिक न रहना कृषि और शारीरिक परिश्रम से रहित यह समुदाय वर्तमान में बेहद मुफलिसी में जीवन गुजार रहे हैं।

   छत्तीसगढ़ की खानाबदोश जातियों में  शुमार  देवार प्रमुख समुदाय  हैं । अन्य में मित्ता , मंगन -भाट , बसदेवा, नट पारधी ,शिकारी ,किस्बा  आदि आते है। इनका कोई स्थायी घर या गांव नही होते ।ये लोग आजीविका और वस्तुओं के उपलब्धता के दृष्टि से इधर - उधर घुमते रहते है। इनमे मंगन  भाट - बसदेवा लोग अब घर या गांव बसा लिए है। पर मित्ता देवार आदि अब भी खनाबदोश जीवन जीते है। इनके रहने की जगह को डेरा या भसार कहते है ।जो शहर या गांव से दूर रहते हैं।‌ इनके इर्द - गिर्द कुत्ते ,सुअर गधे आदि पशुए भी इनके साथ रहते है। कही कही कुछ बडे ग्रामों , कस्बो मे लंबी अवधि के लिए डेरे लग जाते है ।जहां अनेक घुमंतु जातियां मिलकर रहते हैं। उनके बीच मेल-मिलाप से  सांस्कृतिक व प्रवृत्ति गत एकीकरण होने लगे लगे हैं। प्रेम प्रसंग में शादी -ब्याह होने से इन घुमंतुओं मे एक नवीन सम्मिश्रण संस्कृति का विकास होने लगे हैं। 
  बाहरहाल  इनमे देवारों के साथ- साथ कुछ अन्य समुदाय के भी कार्य गायन वादन एंव नर्तन हैं। राजतंत्र के समय खासकर कलचुरियों एंव हैहयवंशीय राज्य में  देवारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और ये लोग चारण -भाट की तरह ही राजा एंव राज्य की यशगान करते आजीविका चलाते रहें हैं।  ये कलावंत समाज है जिसकी स्त्रियां भी नृत्य- गान प्रवीण होती है। रानियों/ सामंतों की स्त्रियों  व आम महिलाओ के  लिए सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तु जैसे ये बालों के  लिए रीठा ,आंवला ,शिकाकाई अन्य जड़ी - बुटी  बेचती तथा गोदने गोदती और उनके एवज में पैसे व अनाज प्राप्त कर आजीविका चलाती रहीं। फलस्वरुप कृषि जैसे वृत्ति से यह समुदाय कोसों दूर हैं। बल्कि कृषक वर्गों के बीच अब उक्त सामाग्रियों के बेंच कर आजीविका चलाते हैं।  सौन्दर्य और प्रसाधन क्षेत्र में नव आधुनिक वस्तुएं से आने से उनकी अध्य व्यवसाय भी प्रभावित हो गये । अत: अब वे लोग हमारे वेस्ट पदार्थ यानि झिल्ली प्लास्टिक लोहे  टीन,  कांच आदि  शीशी   बोतलें  इत्यादि जो अनुपयोगी वस्तुएं हैं जिसे कबाड़ भंगार आदि कहते है , को एकत्र कर बेजने के कार्य कर जीवकोपार्जन करते हैं।

इनक गीत व अख्यान  व वृतांत  बोल बडे ही सम्मोहक मनोरंजक व नीति परक होते हैं। समकालीन समय के इतिहास कला संस्कृति आदि चित्रण उनमें समादृत होते हैं।
 वाद्य यंत्रों प्राय: मांदर, रुंझु, सरांगी  , खंजेरी, चुटका आदि लोक वाद्य द्वारा आकर्षक नृत्य गीत पस्तुत करते है -
रामे रामे रामे गा मोर रामे रामे भाई ग 
ज उने समय के बेरा हवे भाई ...
कथा प्रसंग उठाते है और सरांगी कानो मे अमृत घोरते है ।
चिंताराम देवार की गायन आकाशवाणी रायपुर से प्राय: प्रसारण होते ही रहते है। किस्मत बाई , मालाबाई , फिदाबाई , पूनम , पद्मा ,  जयंती , रतन सबिहा ,जीयारानी जैसी अनेक मधुर गायिकाएं व नृत्यांगनाए हैं।

  नाचा के पुरोधा  दाऊ मंदराजी जी ने छत्तीसगढ़ की बेहद लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति  नाचा मे हारमोनियम और महिला देवारिन कलाकार का प्रयोग कर नाचा की लोकप्रियता को शीर्ष पर ले गया ।तब से देवारिनों को  नाच आर्केस्ट्रा में काम मिलने लगी और उनकी कलाओं को चार चांद लगे।इनकी  झुमर नाच , करमा घुच्ची करमा नृत्य व गान में इनके  पुरुष मांदर व रुंझू खजेरी चुटका  बजाते थे।
 झुम के मांदर वाला रे करमा धुन म मय नाच मातेंव...
 उनकी सर्वधर्म सम भाव और सर्व मत संप्रदाय के बीच जाकर उनके मन बोधने व गायन का बेहतरीन स्तर द्रष्ट्व्य है - 

राउर पिंजरा म बइठ सुवा मैना बोलत हे राम राम 
अहा बोलत हे राम 
बैसनो साकत बुद्ध जैन कबीर पंथ सतनाम हरि जी ...
  इनमें रोज कमाओ रोज खाओ और मद्य- मांस आदि के चलते  गरीबी और अनेक बुराई पनपी और निरंतर यह समाज मुख्य धारा से कटते चले गये।
हालांकि इनकी भाषा इनके शब्द आदि एक अलग तरह के सांस्कृतिक तथ्य समेटे हुए है जिनका अपना एक अलग महत्व हैं।
   इतिहास साहित्य के अलावा समाज शास्त्र ,मानव शास्त्र सहित भाषा विज्ञान के लिए यह समाज अन्वेषण का विषय है।

    डा. अनिल कुमार भतपहरी
      मो न 9617777514 
           सचिव 
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग 
सी - 11/ 9077 सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001