Sunday, January 28, 2024

खानाबदोश जाति देवार की कलाएं

खानाबदोश जाति देवार की कलाएं 

   छत्तीसगढ़ की खानाबदोश जातियों में   देवार प्रमुख हैं अन्य में मित्ता , मंगन -भाट , बसदेवा, नट पारधी ,शिकारी ,किस्बा  आदि आते है। इनका कोई स्थायी घर या गांव नही होते ।ये लोग आजीविका और वस्तुओं के उपलब्धता के दृष्टि से इधर - उधर घुमते रहते है। इनमे मंगन  भाट - बसदेवा लोग अब घर या गांव बसा लिए है। पर मित्ता देवार आदि अब भी खनाबदोश जीवन जीते है। इनके रहने की जगह को डेरा या भसार कहते है ।जो शहर या गांव से दूर रहते हैं।‌ इनके इर्द - गिर्द कुत्ते ,सुअर गधे आदि पशुए भी इनके साथ रहते है। कही कही कुछ बडे ग्रामों , कस्बो मे लंबी अवधि के लिए डेरे लग जाते है ।जहां अनेक घुमंतु जातियां मिलकर रहते हैं। उनके बीच मेल मिलाप से  सांस्कृतिक व प्रवृत्ति गत एकीकरण होने लगे लगे हैं। प्रेम प्रसंग मे शादी ब्याह होने से इन घुमंतुओं मे एक नवीन सम्मिश्रण संस्कृति का विकास होने लगे हैं। 
  बाहरहाल  इनमे देवारों के साथ साथ कुछ अन्य के भी कार्य गायन वादन एंव नर्तन हैं। राजतंत्र के समय खासकर कलचुरियों एंव हैहयवंशीय राज्य में  देवारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और ये लोग चारण -भाट की तरह ही राजा एंव राज्य की यशगान करते आजीविका चलाते हैं। ये कलावंत समाज है जिसकी स्त्रियां भी नृत्य- गान प्रवीण होती है। रानियों/ सामंतों की स्त्रियों  व आम महिलाओ के  लिए सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तु जैसे ये बालों के  लिए रीठा ,आंवला ,शिकाकाई अन्य जड़ी - बुटी  बेचती तथा गोदने गोदती और उनके एवज में पैसे व अनाज प्राप्त कर आजीविका चलाती रहीं। 
इनके गीत व बोल बडे ही सम्मोहक मनोरंजक व नीति परक होते है ।
मांदर, रुंझु, सरांगी  , खंजेरी, चुटका आदि लोक वाद्य द्वारा आकर्षक नृत्य गीत पस्तुत करते है -
रामे रामे रामे गा मोर रामे रामे भाई ग 
ज उने समय के बेरा हवे भाई ...
कथा प्रसंग उठाते है और सरांगी कानो मे अमृत घोरते है ।
चिंताराम देवार की गायन आकाशवाणी रायपुर से प्राय: प्रसारण होते ही रहते है। किस्मत बाई , मालाबाई , फिदाबाई , पूनम , पद्मा ,  जयंती  रतन सबिहा ,जीयारानी जैसी अनेक मधुर गायिकाएं व नृत्यांगनाए हैं।

  नाचा के पुरोधा  दाऊ मंदराजी जी ने छत्तीसगढ़ की बेहद लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति  नाचा मे हारमोनियम और महिला देवारिन कलाकार का प्रयोग कर नाचा की लोकप्रियता को शीर्ष पर ले गया ।तब से देवारिनों नाच आर्केस्ट्रा में काम मिलने लगी और उनकी कलाओं को चार चांद लगे।इनकी  झुमर नाच , करमा घुच्ची करमा नृत्य व गान में इनके  पुरुष मांदर व रुंझू खजेरी चुटका  बजाते थे।
 झुम के मांदर वाला रे करमा धुन म मय नाच मातेंव...
 उनकी सर्वधर्म सम भाव और सर्व मत संप्रदाय के बीच जाकर उनके मन बोधने व गायन का बेहतरीन स्तर द्रष्ट्व्य है - 

राउर पिंजरा म बइठ सुवा मैना बोलत हे राम राम 
अहा बोलत हे राम 
बैसनो साकत बुद्ध जैन कबीर पंथ सतनाम हरि जी ...
  इनमें रोज कमाओ रोज खाओ और मद्य- मांस आदि के चलते  गरीबी और अनेक बुराई पनपी और निरंतर यह समाज मुख्य धारा से कटते चले गये।
हालांकि इनकी भाषा इनके शब्द आदि एक अलग तरह के सांस्कृतिक तथ्य समेटे हुए है जिनका अपना एक अलग महत्व हैं।
   इतिहास साहित्य के अलावा समाज शास्त्र ,मानव शास्त्र सहित भाषा विज्ञान के लिए यह समाज अन्वेषण का विषय है।
 साठ - सत्तर के दशक में बघेरा निवासी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने देवार डेरा नामक संस्था बनाकर देवार और देवारिनों की कला को पहली बार मंचीय स्वरुप दिया । अनेक तरह की उनकी लोक गीत और वाद्य यंत्र व कलाकारों द्वारा भव्यतम प्रस्तुति दी जाने लगी।  एक तरह से देवार गीत और उनकी  नृत्य  गान वाद्य कलाएं शिष्टता लिए हुए सामने आई - 
आज जागत हे जनता के भाग रे मैना बोलय 
मैना बोलय सुवा न के साथ रे मैना बोलय ...
देवार एक जगह टीक कर नही रहते बल्कि वे लोग हर  महिने दो महिने में डेरे बदलते रहते है ।उनके पास जरुरी भोजन के पात्र कुछ कपडे और कुछ कथरियों और मुर्गे सुअर के सिवा लोई संपदा भी नही । उन्हे लगभग समाज अस्पृश्य की श्रेणी में रखते भेदभाव करते है। 
   इसकी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया इन लोगो द्वारा गाई जाने वाली  लोकगाथा " दशमत कइना" में देखने मिलता हैं। लोक मे यह विश्वास है कि यह सत्य घटना पर आधारित कथानक हैं।
    अत्यंत रुपसी दशमत ओड़न  की प्रेम में एक ब्राह्मण लड़का अपनी जाति वंश त्याग कर दशमत को पाने  उनके बीच आकर रहने लगते है -

नव लाख ओडिया नव ओड़निन 
खोदे सगुरिया जाय ।
जुगजुग बरय एक झन नोनी 
नाव जसमतिया ताय ।।

दशमत से प्रणय निवेदन करते कहते है -

मोर घर हवय हंसा परेना , सेज सुपेती अनलेख ।
हीरा मोती रतन पदारथ पाबे अटल  सुख सरेख ।।  

दसमत कहती है -

तोर घर हवे हंसा परेवना त मोर कुकरी अनलेख ।
तोर घर हवय सेज सुपेती त मोर कथरी अनलेख ।।

  इस तरह दोनो के बीच वार्तालाप  और तुलनात्मक बातों से युवक  यह तय करना कठिन होता है श्रेष्ठ जैसा कुछ नही जिसमे जीवन चले और सुख मिले वही उपयोगी  वस्तु ही श्रेष्ठतम है ।

  चिरई म सुघ्घर पतरेंगवा सांप सुघ्घर मनिहार ।
कमा खा हस ले गा ले जात म सुघ्घर देवार ।।

  कह अपनी जातिय संस्कृति को यह लोग किसी से कमतर नही मानते बल्कि सुंदर समझते हैं।

 अंतत: दशमत को पाने के लिए ब्राह्मण युवक देवार की तरह शराब पीते है सुअर मांस खाते है !  जनेऊ तिलक भंग कर साधारण मनुष्य बनकर देवारों जैसा स्वरुप मे आते है ।
दशमत तो उनकी इस बलिदान से प्रभावित हो प्रेम करने लगती है पर पुरुष वर्ग उन्हे वरण नही करने देते और  उनकी जात और कथित उच्च होने की धारणाओं पर खिल्ली उड़ाते जातिय दर्प को कुचल कर गधे में बिठाकर ताल सगुरिया में डुबो देता है ।
उनकी इस  कृत  ब्राह्मण युवक  रुदन करते है-
  माथा धर के बाभन रोवय 
का करम करम डारेव ।
मया म अरझे रहिके मय कुल बंश बोर डारेंव ।।
  
छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास की शिक्षा  " मनखे मनखे एक " हर संवर्ग और लोगो को अभिप्रेरित किया एक देवार गीत मे इस संदेश की बानगी द्रष्ट्व्य है -

मनखे ल मनखे मन अब मनखे  मानत हे 
आज जुरमिल मित्ता मन भजन गावत हे ...
     देवार लोग अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त  रस्मों के गीत के अलावा दान दया धरम के गीतों साथ प्राय: प्रेम प्रसंग के गीत  नगेसर कैना ,  करमा ,  ददरिया ,चंदैनी ,गाकर नाच कर लोगो को रिझाते व मनोरंजन कर के जीवन यापन करते हैं।
   ये लोग बंदर नचाने और कुछ करतब दिखा कर भी रोजी रोजगार करते है।
   देवार -मित्ता लोग अन्य घुमंतु जातियों जैसे  मंगन ,भाट ,बसुदेवा , किस्बा ,  डंगचंगहा , मदारी, नट ,सपेरे पारधी , शिकारी  आदि घुमंतु लोगो के आसपास रहने से उनके जैसे ही जीवन वृत्त अपनाने लगे है । फलस्वरुप उनकी विशेषताएं व लक्षण यदा - कदा इनमे भी दिखते है। ये लोग जड़ी -बुटी मंदरस , बधिया तेल  सुअर मुर्गे आदि पालने व  बेचने  आदि के कार्य भी करते हैं। 
पर राजतंत्र के खात्में और आधुनिक प्रसाधनों की वस्तुओं से बाजार सज जाने से इनकी पारंपरिक कार्य विलुप्त सा हो गये। इनके रोजी - रोटी छिना गया ।
      
फलस्वरुप  वर्तमान में अपने आजीविका हेत  हमारे दैनंदिनी में उपयोग की वस्तुओं के बचत या वेस्ट सामाग्री को जिसे हम कुड़ा दानों में फेंक देते है को  एकत्र कर कबाडियों के पास बेचना हैं। और कुछेक धरेलू या खिलौने की सामान के बदले लोगों की वेस्ट चीजें एकत्र करना हैं। 
   बहुत ही निर्धन पर जो संसाधन है उसी पर मस्ती पूर्वक जिंदादिली से यह तबका जीते आ रहा है। शासन - प्रशासन से इन्हे कोई अपेक्षा नही और न कभी अपने हक अधिकार के लिए एकजूट होते है।
ये संख्या में कम भी है और कलावंत समुदाय होने के कारण इनकी युवा महिलाएं और स्त्रियां नाच पेखन लोक कला मंचों से जुड़ी हुई है। वहां की आय से यह समुदाय बिना कोई  कठोर परिश्रम किये जीवन गुजार देते हैं। ये लोग कही स्थिर टिक कर रहते नही फलस्वरुप अनेक कल्याणकारी योजनाओं से दूर रहते हैं।  साथ ही चाह कर भी प्रशासन उन तक पहुंच नही पाते।
    हालांकि अब स्लम एरिया मे चलता - फिरता अस्पताल आदि खुल जाने से इनका लाभ इन समुदायों को मिलने लगा हैं। और सामाजिक चेतना भी यदा - कदा आने लगी हैं। फिर भी इनके बीच मोबाइल अस्पताल जैसे इनके बच्चों के लिए चलता - फिरता स्कूल आदि खोलने से परिणाम सकरात्मक आएन्गे। कुछ कुछ समाज सेवी लोग व संस्थाएं इनकी दशा सुधारने सक्रिय है।
   इनके बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा या कंबल फल मिठाई दवाई आदि वितरण करते देखे सुने जाते हैं।
   रायपुर आदि बड़ी जगहों पर शादी / पार्टी/  भंडारा  आदि के बचत खाने भी इन्हे परोस दिये जाते है। कुछ लोग  पुराने कपडे दान करते है।नेकी की दीवार से भी ये लोगों द्वारा छोड़े गये पुराने कपड़े पहन लेते है। इस तरह  जैसे - तैसे इन लोगों का निर्वह‌न हो ही जाते है। कुछ लोग सुअर पालने लगे है और उससे इनका जीवन स्तर सुधरने लगा है ।पर शराब आदि के कारण निर्धनता व्याप्त है । ये लोगों में अपराधिक प्रवृत्तियां भी पाई जाती है।  मद्यपान चोरी  लड़ाई झगडे बलवा  जबकि पुराने समय मे देवार निष्ठावान थे और चोरी आदि से दूर परिश्रमी थे।
   वृद्धावस्था मे ये लोग भिक्षाटन करते हं। इस जाति की पुनर्वास बेहद जरुरी है । शासन - प्रशासन को चाहिये  कि बेहतर कार्ययोजना बनाकर इनके भसार यानि डेरे या मोहल्ले मे चलित क्लीनिक टाइप चलित स्कूल खोले ।उनके बच्चों को उनकी संस्कृति के अनुरुप शिक्षा दे ताकि  इस समाज के हालात में नव प्रवर्तन हो सकें।

    डा. अनिल कुमार भतपहरी
      मो न 9617777514 
           सचिव 
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग 
सी - 11/ 9077 सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001

Wednesday, January 24, 2024

गुरु अम्मरदास

।।गुरु अम्मरदास समाधि मेला चटुवा पुरी धाम ।।

 गुरुघासीदास के ज्येष्ठ पुत्र है।वे आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे तथा ध्यान योग समाधि में निष्णान्त थे।
    गुरुघासीदास की  अमृतवाणी उपदेश और सतनाम- दर्शन को जनमानस में पंथी गीत व मंगल भजन के रुप मे लयात्मक रुप देकर जनमानस के कंठाहार बनाए। इस तरह से देखें तो गुरु उपदेश को काव्यात्मक स्वरुप देने का अप्रतिम कार्य किये ।फलस्वरुप हजारों पंथी गीत छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के अनुपम धरोहर हैं।
   जनश्रुति है कि वे सतनाम पंथ के प्रचार हेतु शिवनाथ नदी के उसपार अपने ससुराल प्रतापपुर  परिक्षेत्र  सफेद रंग के  हंसालीली  सफेद घोड़ा से जा रहे थे।सिमगा से आगे चटुआ धाट के समीप इमली पेड़ के झुरमुट के समीप  वे साधनारत हो गये।उनके दर्शनार्थ आसपास से जनसमूह उमड़ने लगे।
      वे अनुआयियों  को साढ़े तीन दिन की "शव समाधि" लेने की इच्छा व्यक्त किए और समाधिस्थ हो गये।  चारों ओर से  बेकाबू भीड़ दर्शनार्थ उमड़ पड़े कि तीसरे दिन कुछ नायाब चीजें लेकर गुरु आयेन्गे।  सतनामियों की एकजुटता और संगठन से घबराकर कुछ सड़यंत्री व द्वेषी जन लोगों में भ्रम फैलाने लगे कि लाश में प्राण नही है और इसमें जीव आ नही सकते ।इसके क्रियाकर्म कर दो । जनमानस भजन- कीर्तन करते रहे । एक दिन बीता, दो दिन बीत गये  शव मे चेतना आई नही ।सतनाम द्वेषी लोग लोग भ्रम फैलाते रहे अंतत: तीसरे दिन शव को दफना दिए गये। पर कुछ भक्त वही बैठे शोकमग्न थे।
 साढ़े तीन दिन बाद शाम को  प्राण ज्योति स्वरुप आई शव की चारो ओर परिक्रमा की और शव में सुरंग सा हो गये जलधारा फूट पड़ी । प्रत्यक्ष दर्शी रोते बिलखते वापस आ गये ।यह घटना १८४० को पौष पुर्णिमा को हुआ। गुरुघासीदास भी अपने तेजस्वी पुत्र के वियोग से विह्वल  व अनमना होकर रह गये । 
    अंतत: एकान्तवास के लिए प्रयाण कर गये। 
    कलान्तर मे हरिनभठ्ठा के मालगुजार आधारदास सोनवानी जी ने उक्त समाधि स्थल मे १९०२ के आसपास भव्य मंदिर बनवाए ।और शिल्पकार समकालीन समय मे अन्यत्र हिन्दू मंदिरों के अनुशरण करते शिव ब्रम्हा के साथ कुछ विवादस्पद शिल्प बनाए .... जो वर्तमान मे  अप्रसांगिक है।‌ उन्हे हटाने की निरन्तर मांग हो रही है।परन्तु प्रबंधक लोग विरासत और प्राचीन कलाकृति के नाम पर अनिर्णय की स्थिति में है।
         बहरहाल यहां प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा को त्रिदीवसीय विशालकाय मेला लगता हैं। यह स्थल रतनपुर राज के अन्तर्गत आते हैं।  उनके साथ रायपुर राज में बाराडेरा धाम में भी विराट मेला लगता हैं।
     चटवा  धाम से कुछही  दूर ग्राम  किरित पुर मे  जैतखाम के शिखर पर सत्यपुरुष व सत्यावती का शिल्पांकन किए गये है।जो और भी सतनाम संस्कृति में अग्राह्य है। इसमें  यथोचित सुधार  होना चाहिये ।

             ।‌सतनाम ।।

         - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Monday, January 15, 2024

हमर भांचा राम





सुने हन अजोधिया के ,राजा बनगे राम 
हमर भांचा राम, हमर भांचा राम ...

लइकुसहा ले बलखर भारी ओहर  रहिस   
तड़का ल मार  गिराइस  अउ मारीच ल खेदारिस  
साधु -संत के सेवा बर निकले लखन संग  राम ...

जनकपुर म  धनुष टोर के  बिहाइस सीता 
बहिनी कौसिलया बर  होने अड़बड़ सुभीता 
सुख म दिन बितय उंकर,  उच्छल मंगल रात ...


मुड़धुंगी कैकेयी केजबर  करवादिस बनवास 
मुरझा गे फूल डोहड़ी ह टुटगे सबके आस 
बने करिस फेर  आइन बिराजिस हमरो लंग राम ...
 
मनखे ल कोन कहय सब जीव जन्तु ल सरेखिस  
जंगल झाड़ी डोंगरी पहाड़ सब ल सुघ्घर जतनिस 
बारा बछर  ल बिताइस हमरो संग म राम ...

सिव भूमि सिरपुर म  आके भारी मान पाइस 
ये पबरित भुंइया के ओमन महिमा गाइस 
सुग्रीव संग बद मितानी पाइस सेवक हनुमान ...


सुनके मान बड़ाई ओकर  तरमरागे कपटी  रावन
छल कपट करके सीता ल हर लिस बैरी रावन 
सब पुरखा मन  संग दिस त लंका जीतीस राम ...

देवारी कस उच्छल- मंगल अजोधिया म होइन 
चलव हमु मन उकर सेती घरो घर दीया बारिन 
ओती सिंघासन म बिराजे अउ ऐती घट म राम... 
हमर भांचा हमर भांचा राम ...