।।संभोग- समाधि ।।
ओशो की नही यह यह हमारी अपनी अवधारणा हैं। हालांकि यह शब्द और सोच विविध धर्म ग्रंथों वहां की अवधारणाओं एंव विभिन्न द्रष्टाओं और विचारकों से आया उनमे ओशो भी समादृत है। पर उन सबके बाद निकष में अपनी स्व अनुभव व स्व विवेक से यह जानने -समझने प्रयत्न किया कि इस संघर्ष मय जीवन में कैसे और किस तरह से सुखी व आनंदित रहें? या रहा जा सकता हैं।
ईश्वराश्रित दुनिया और स्वयं भू दुनियां में प्रतिद्वंद्विंता आरंभ से हैं। ज्ञात साहित्य वेदों में न इति न इति कह उन्हे अनश्वर असमझ अनंत असीम कहे गये और लोकायतों ने भी कमोबेश उसी के आसपास विचार व्यक्त किये । और उनकी स्थापनाएं व वेदो को नही माना न उन्हे अपौरुषेय कहे ।फलस्वरुप दो धाराएं प्रस्फूटित हुई आस्तिक- नास्तिक की ।
उनमें भी यह विचार है कि
ईश्वर भी एक भ्रम हैं। ओ है या नही पर विवाद है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि है नही के मध्य में वो है ऐसा भी प्रवाद हैं। और लोग ऐसे संस्थापनाओं में उन्मत्त हैं।
अपनी बातों को मनवाने के लिए कुछेक विचारक रचयिताओं ने उस अज्ञेय अजाना के लिए निराकार साकार ,अवतार , प्रकृति कुदरत कह उसे निर्गुण -सगुण मानकर कथा कहानियों महाकाव्यों वृतांतों का अंबार लगा दिये गये हैं। अनेक धर्म मत पंथ उनको केंद्र में रखकर चल रहा हैं। वे कुछ प्रथाए क्रियाये ईजाद कर रखे है।
जबकि सद्गुणों के समुच्चय और उनके व्यवहार ही व्यक्ति और समुदाय को सुख आनंद की अनुभूति करा सकते पर प्रवर्तक और अनुआई ने कुछेक गुणों को लेकर ऐसी हाय तौबा मचाई है कि उनका निर्वहन भी हास्यास्पद और रुढता जैसे हो ग ई ।
जैसे किसी ने सत्य को पकड़ा बस नारे लग रहे है निर्वहन नही ।किसी प्रेम को पकड़ा उन्हे पता नही कि किसे और कैसे प्रेम करे बस भजन कीर्तन गा और नाच रहे है ।किसी ने परोपकार को पकड़ा बस चंदे उगाही कर दो नंबर से रुपये जोड़कर दान करते कंबल रोटी फल बाट बस रहे है । कोई जरुरत मंद ही न रहे ऐसा कोई उपक्रम नही ।प्याज न खाकर ब्याज खाकर बस ईट पत्थर के ढाचे कर भोग भञडारा कर धार्मिक होने के होड़ करते जुलुस निकाल रहे है।
किसी काम वासनाओ विलासताओ को त्याग तप तपस्या को अपनाया तो किसी ने वासनाओ को भोगते प्राप्त छणिक सुख को तथाकथित समाधि महासुख मे बदलने उपक्रम खोज निकाला । युगनद्ध युगल द्वय हठयोग के पंच मकार के मांस मदिरा मुद्रा मैथुन के लिए कुंठाग्रस्त काम पिपासु लोलुप भ्रमित लोग एकत्र किये गये और अनवरत संभोग घंटों क्रिया चलने वीर्य स्खनल को रोक उसे उर्ध्व साधने की अटपटी क्रिया विकसित कर ली ग ई ।
कहने का अर्थ जिनको जो सुझा सबने अपनी दुकाने खोल मेला में बैठ गये ।
सभी अपनी समान सामान और मेवा को उत्तम बताने लगे ।
ओ तो बौराया जग को बौराने लगे जिनकी संख्या भारी उनकी ही सत्ताए जिनकी दौलत भारी वही प्रबंधक ।
यह सब खेला है खेलते रहे और भ्रम को पाने के चक्कर मे भ्रमित रहे ।जिसे हमने ही बनाया और हमने ही उसे नही जाना बल्कि उसे जानबुझकर अनजाना किया दुनिया को दीवाना किया ।
जबकि धर्म कर्म साधना समाधि सुख आनंद व ईश भक्ति भगवद्प्राप्ति आदि के उद्यम का सार यह है कि स्वयं को सुधारो स्वयं को चेताओ न कि दूसरों को सुधारने और कही कोई ग्रंथ जगह स्थल पर भगवान है को बताने या कुछ को लेकर या एकांत में ढूढने निकल पड़ो।
सच तो यह है कि कुछ ऐसा करो कि आपके वजह से कोई परिजन और अन्य हो ,को कोई भी तकलीफ न हो । वे प्रतिकार या प्रतिरोध कर आपके शांति व सुकून में बाधा न पहुचाएं।
कबीर की तरह - जस की तस धर दिनी चदरिया रखो न कि कोई मत पंथ आदि बखेड़ा खड़ा कर यश नाम आदि कमाने उद्यम करो ।यह न मिला तो दु: ख और फिर उनके निदान के लिए प्रयत्न फिर चक्र मे जुत गये कोल्हू की तरह ।
अर्थ ,धर्म ,काम , मोक्ष तो सांसरिकता है इन सबसे ऊपर उठोगे तो जानोगे कि जीवन और आनंद क्या है ? पर लोग इन्ही चक्र मे मरण और पुनर्जन्म लोक परलोक के चक्र में भ्रमित भटक रहे हैं।
स्वयं का भोग ही संभोग है न कि पराई स्त्री या स्वयं की स्त्री का भोग को संभोग कहे ।वह सहवास है काम कलाए है ।सामर्थ्य है तो सहवास होगा अशक्त नि: शक्त या नंपुसक या किन्नर भला क्या और कैसे संभोग करेगा ? और उन्हे फिर कैसा सुख कैसा आनंद कैसा समाधि ?
आपको जो मिला है चाहे संपदा या विचार या समझ उसे स्वयं के हितार्थ कैसे भोगते हो कि किसी दूसरे को फर्क न पडे उसे कष्ट न हो यही संभोग है ।और फिर उस से सुख पाओ या आनंद या उन्मनी रहो समाधिस्थ रहो या जो चाहे नाम दो उससे क्या ? कुछ लेना न देना मगन रहना ।