Thursday, November 30, 2023

संभोग - समाधि

।‌।संभोग- समाधि ।।
    
ओशो की नही यह यह हमारी अपनी अवधारणा हैं। हालांकि यह शब्द और सोच विविध धर्म ग्रंथों वहां की अवधारणाओं एंव विभिन्न द्रष्टाओं और विचारकों  से आया उनमे ओशो भी समादृत है।  पर उन सबके बाद निकष में अप‌नी   स्व अनुभव व स्व विवेक से यह जानने -समझने प्रयत्न किया कि इस संघर्ष मय जीवन में कैसे और किस तरह से  सुखी व आनंदित रहें? या रहा जा सकता हैं।  
    ईश्वराश्रित दुनिया और स्वयं भू दुनियां में प्रतिद्वंद्विंता आरंभ से हैं। ज्ञात साहित्य  वेदों में न इति न इति कह उन्हे अनश्वर असमझ अनंत असीम कहे गये और लोकायतों  ने भी कमोबेश उसी के आसपास विचार व्यक्त किये । और उनकी स्थापनाएं व वेदो को नही माना न उन्हे अपौरुषेय कहे ।फलस्वरुप  दो धाराएं प्रस्फूटित हुई  आस्तिक- नास्तिक की ।
उनमें  भी  यह विचार है कि  
 ईश्वर भी एक भ्रम हैं। ओ है या नही पर विवाद है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि है नही के मध्य में वो है ऐसा  भी प्रवाद हैं। और लोग ऐसे संस्थापनाओं में उन्मत्त हैं।
   अपनी बातों को मनवाने के लिए कुछेक विचारक रचयिताओं ने उस अज्ञेय अजाना के लिए निराकार साकार ,अवतार , प्रकृति कुदरत कह उसे  निर्गुण -सगुण मानकर कथा कहानियों महाकाव्यों वृतांतों का अंबार लगा दिये गये हैं। अनेक धर्म मत पंथ उनको केंद्र में रखकर चल रहा हैं। वे कुछ प्रथाए क्रियाये ईजाद कर रखे है।
   जबकि  सद्गुणों के समुच्चय और उनके व्यवहार ही व्यक्ति  और समुदाय को सुख आनंद की अनुभूति करा सकते पर प्रवर्तक और अनुआई ने कुछेक गुणों को लेकर ऐसी हाय तौबा मचाई है कि उनका निर्वहन भी हास्यास्पद और रुढता जैसे हो ग ई ।
जैसे किसी ने सत्य को पकड़ा बस नारे लग रहे है निर्वहन नही ।किसी प्रेम को पकड़ा उन्हे पता नही कि किसे और कैसे प्रेम करे बस भजन कीर्तन गा और नाच रहे है ।किसी ने परोपकार को पकड़ा बस चंदे उगाही कर दो नंबर से रुपये जोड़कर दान करते कंबल रोटी फल बाट बस रहे है । कोई जरुरत मंद ही न रहे ऐसा कोई उपक्रम नही ।प्याज न खाकर ब्याज खाकर बस ईट पत्थर के ढाचे कर भोग भञडारा कर धार्मिक होने के होड़ करते जुलुस निकाल रहे है।
किसी काम वासनाओ विलासताओ  को त्याग तप तपस्या को अपनाया तो किसी ने वासनाओ को भोगते प्राप्त छणिक सुख को तथाकथित समाधि महासुख मे बदलने उपक्रम खोज निकाला ।  युगनद्ध युगल द्वय हठयोग के पंच मकार के मांस मदिरा मुद्रा मैथुन के लिए कुंठाग्रस्त काम पिपासु लोलुप भ्रमित लोग एकत्र किये गये और अनवरत संभोग घंटों क्रिया चलने वीर्य स्खनल को रोक उसे उर्ध्व साधने की अटपटी क्रिया विकसित कर ली ग ई ।
कहने का अर्थ जिनको जो सुझा सबने अपनी दुकाने खोल मेला में बैठ गये ।
  सभी अपनी समान सामान और मेवा को उत्तम बताने लगे ।
ओ तो बौराया जग को बौराने लगे जिनकी संख्या भारी उनकी ही सत्ताए जिनकी दौलत भारी वही प्रबंधक ।
     यह सब खेला है खेलते रहे और भ्रम को पाने के चक्कर मे भ्रमित रहे ।जिसे हमने ही बनाया और हमने ही उसे नही जाना बल्कि उसे जानबुझकर अनजाना किया दुनिया को दीवाना किया ।

जबकि धर्म कर्म साधना समाधि सुख आनंद व ईश भक्ति भगवद्प्राप्ति  आदि के उद्यम का  सार यह  है कि  स्वयं को सुधारो स्वयं को चेताओ न कि दूसरों  को सुधारने और कही कोई ग्रंथ जगह स्थल पर भगवान है को बताने या कुछ को लेकर या एकांत में ढूढने निकल पड़ो। 
   सच तो यह है कि कुछ ऐसा करो कि आपके वजह से कोई  परिजन और अन्य  हो ,को कोई भी तकलीफ न हो । वे प्रतिकार या प्रतिरोध कर आपके शांति व सुकून में बाधा न पहुचाएं। 
कबीर की तरह - जस की तस धर दिनी चदरिया रखो न कि कोई मत पंथ आदि बखेड़ा खड़ा कर यश नाम आदि कमाने उद्यम करो ।यह न मिला तो दु: ख और फिर उनके निदान के लिए प्रयत्न फिर चक्र मे जुत गये कोल्हू की तरह ।
     अर्थ ,धर्म  ,काम , मोक्ष तो सांसरिकता है  इन सबसे ऊपर उठोगे तो जानोगे कि जीवन और आनंद क्या है ? पर लोग इन्ही चक्र मे मरण और पुनर्जन्म लोक परलोक के चक्र में भ्रमित भटक रहे हैं।
     स्वयं का भोग ही संभोग है न कि पराई स्त्री या स्वयं की स्त्री का भोग को संभोग कहे ।वह सहवास है काम कलाए है ।सामर्थ्य है तो सहवास होगा अशक्त नि: शक्त या नंपुसक या किन्नर भला क्या और कैसे संभोग करेगा ? और उन्हे फिर कैसा सुख कैसा आनंद कैसा समाधि ?
       आपको जो मिला है चाहे संपदा या विचार या समझ उसे स्वयं के हितार्थ कैसे भोगते हो कि किसी दूसरे को फर्क न पडे उसे कष्ट न हो यही संभोग है ।और फिर उस से सुख पाओ या आनंद या उन्मनी रहो समाधिस्थ रहो या जो चाहे नाम दो उससे क्या ? कुछ लेना न देना मगन रहना ।

Friday, November 24, 2023

सामान्य सी बात

#anilbhatpahari 

।।सामान्य सी बात ।‌।

बहुत सहज 
सामान्य कथ्य है
पर बहुत से
असामान्य लोगों को 
असहज लगेंगें
कि आज देवता जगेंगें 
तो सब कुछ 
सुमंगल होगा
गंवाई गई 
सत्ता आ जायेगी 
या फिसलती हुई 
सत्ता ठहर जाएगी 
जल रहे है धूप-दीप 
घंटे और अज़ान भी 
गूंज रहे फ़िजा़ में 
हो रहे हैं यज्ञ हवन भी 
सुदूर  संकीर्तन भी 
इर्द गिर्द मंगल भजन भी 
इधर कुछ तांत्रिक 
कर रहे तंत्र साधना 
और उस तरफ  यांत्रिक 
कर रहे यंत्र साधना 
मांत्रिक लोग फूंक रहे मंत्र 
शंकालू प्रश्नालू भी 
कमर कस लिए है 
कि ईवीएम होगा हैंक 
जब चंद्रयान नियंत्रित होते यहां से 
तब क्या दस कदम दूर 
संत्रियों के साये में रखे मशीन 
मंत्रियों के ईशारे पर 
यंत्र साधकों द्वारा 
छेड़ा नही जा सकेगा ?
जबकि कुछेक संत्रियों ने 
कई मुजरिमों छोड़ दिया 
कुछेक ले दे कर 
इधर कुछेक सोनोग्राफर 
जो कैमरा माईक पकड़ 
टी वी स्क्रीन में 
भ्रूण परीक्षण में 
लगे हुये हैं-  
किसान होगा या व्यापारी 
नट होगा या मदारी 
माटी पुत्र कि पार्टी पुत्र 
पर यह एहतियात
 ज़रुरी है कि 
इतनी साधारण बात को 
कैसे बतड़ग किया जाय 
जीत की उम्मीदे हो  
तो हार के ठीकरे भी 
कही पर भी फोड़ दिया जाय 
सारे विकल्प खुले रखें
कि मौके पर 
वक्त जरुरत पर 
कहने के लिए 
कुछ कहे तो थे 
हालांकि 
इस साधरण सा कथ्य 
बहुत सा असाधारण लोगों को 
असहज लगेंगें
कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है 
तुम कुछ कह दोगे ?
जबकि कहना हमारा 
जन्म सिद्ध अधिकार है 
और केवल तुम्हरा सुनना 
एकाधिकार ही नही सर्वाधिकार है 
भले तुम जनता हो मतदाता हो 
पर तुम्हारे पास माईक नही हैं
लेने के लिए कोई बाईट नहीं हैं
क्यो चिल्ल पो और  हाहाकार 
अरे हो गया मतदान खतम बाजार 

- डा. अनिल भतपहरी ./ ९६१७७७७५१४

Thursday, November 23, 2023

हिमालय‌

#anilbhatpahari 

हिमालय 

संसार का वैभव  त्याग कर लोग हिमालय की ओर प्रस्थान करते रहे  हैं। कहते है कि वहां देव निवास करते है इसलिए तो हिमालय परिक्षेत्र को देवभूमि की संज्ञा दी गई हैं। 
  कुछ संकट आया , वय ढला  और सर के बाल सफेद हुये  नहीं कि लोग कैलाश त्रिशुल नंदादेवी के शिखर दर्शन के लिए उद्दत हो जाते हैं।तो कुछेक अमरनाथ , बद्रीनाथ गंगोत्री, हरिद्वार की ओर प्रस्थान करते है कि गोया वहां जाने मात्र से मुक्ति मिलेगी या  दर्शन मात्र से मोक्ष या निर्वाण मिल जाएगा ! मानसरोवर को बुद्ध की मानिंद हड़पकर या हस्तगत  चाइना  "बुद्धम शरंणम गच्छामि" का उद्धोष कर रहा है या  उनके आंऊ माऊ चाऊ हम जैसों के भेजे मे समाते नहीं क्या?भले धर्मशाला खोलकर हम मैनपाट तक शरणागतों को आश्रय देकर धर्मप्रिय महादेश के "धर्मात्मा "बने हुये हैं।
 तो भैये कह रहे थे कि वहां तो अनेक साधु ,तपस्वी , संत मठ ,मंदिर ,आश्रम  दिखते भी हैं। जहां मोक्ष निर्वाण का कारोबर चलता हैं जहां  परमानंद -आत्मानंद की अकथ कथा का प्रवाह भी शिलाखंडों व हिमखंडों को‌ चकनाचूर कर आगे प्रयाण करते कल कल निनाद करते  रहे हैं।
   पर सच तो यह है कि  हिमालय की ओर आजकल  युवाओं का ज्यादा आकर्षण बढ रहा  हैं। वहां बड़ी तेजी होटल, रिसार्ट, होम स्टे ,रेस्त्रां ,पब और विविध मौज मस्ती एंव  पर्यटन व मनोरंजन उद्योग  के केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। पैराग्लाडिंग, ट्रेकिंग  ,रीवर राफ्टिंग, जीप लेने जैसे साहसिक कारनामें यदि जीवन संघर्ष में काम आये तो किसी  हठयोगी की तप साधना के प्रतिफल से कमतर नही समझना चाहिये। हमें योगी नही सस्टनेबल भोगी चाहिये तो वसुंधरा के वैभव को चक्रवर्ती सम्राट की तरह भोग सके। पारिवारिक कलह या आर्थिक संकट से भयभीत होकर झोला उठाकर कही भाग न जाये बल्कि शुतुरमुर्ग ही सही गर्दन रेत में घुसा कर डटे रहे या कछुए की मांनिंद भीतरी घर में या बीबी के पल्लु तलें ही बैठ कर मुकाबला करे ...
     हिमालय व देवभूमि  दर्शन  वैराग्य भाव को जागृत करते थे अब राग ,रति ,रंग हिमालय ही जगा रहे हैं। राग -वैराग्य का अनुठा समन्वय वहां द्रष्टव्य हैं। हमलोग हिमालयन व्यु पांइट को अब इंडिया का स्वीट्जरलैंड कह महाआनंद में निमग्न हो जाते हैं। सच कहे तो आसपास बार व बार बलाएं हो, तो इंद्रलोक को पछाड़ दे और गर फिरदौंस ... जमी अस्त कहके उस जहांगिर को चुनौति दे कि केवल कश्मीर ही नही रोहतांग से लेकर नाथुला तक जगह -जगह पर ज़न्नत ईज़ाद कर लिए गये हैं। अब बहत्तर ही क्यों पचहत्तर हुरें सुबह ए शाम मौज़ूद हैं।
  जहां  संन्यास  की दीक्षा ली जाती थी अब उसी भूमि व पावन स्थल में सुहागरात मनाकर गृहस्थ की शुभारंभ करने  लगे हैं।  यही बदलाव है भाया-" अब नइ सहिबो बदल के रहिबो ।"  पांडव लोग महाभारत युद्ध जीत कर विजय के प्रमाद मदमस्त स्वर्गरोहण करने या कहे   मरने हिमालय  गये अब भी कथित विजेताओं द्वारा यह किये  जाते है पर अब जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं।उनका तो स्वागत सत्कार होना चाहिये न कि .... 

     बहरहाल  आइये हिमालय  दर्शन कीजिए और प्रकृति की प्रेम में निमग्न हो परमानंद में खो जाए ...और स्वामी अनिलानंद की भजन में डूब जाय -

कोई काहु में मगन कोई काहु में मगन 
मिटे सारे भ्रम हो प्रसन्न अन्तर्मन 
कोई गाये भजन कोई करे रमन ...

बाकी अंतरा कभी बाद में ...

"अगर बर्दास्त कर सको  तो"  हमारे नये आकार ले रहे कथेतर संग्रह से

हिमालय

#anilbhatpahari 

हिमालय 

संसार का वैभव  त्याग कर लोग हिमालय की ओर प्रस्थान करते रहे  हैं। कहते है कि वहां देव निवास करते है इसलिए तो हिमालय परिक्षेत्र को देवभूमि की संज्ञा दी गई हैं। 
  कुछ संकट आया , वय ढला  और सर के बाल सफेद हुये  नहीं कि लोग कैलाश त्रिशुल नंदादेवी के शिखर दर्शन के लिए उद्दत हो जाते हैं।तो कुछेक अमरनाथ , बद्रीनाथ गंगोत्री, हरिद्वार की ओर प्रस्थान करते है कि गोया वहां जाने मात्र से मुक्ति मिलेगी या  दर्शन मात्र से मोक्ष या निर्वाण मिल जाएगा ! मानसरोवर को बुद्ध की मानिंद हड़पकर या हस्तगत  चाइना  "बुद्धम शरंणम गच्छामि" का उद्धोष कर रहा है या  उनके आंऊ माऊ चाऊ हम जैसों के भेजे मे समाते नहीं क्या?भले धर्मशाला खोलकर हम मैनपाट तक शरणागतों को आश्रय देकर धर्मप्रिय महादेश के "धर्मात्मा "बने हुये हैं।
 तो भैये कह रहे थे कि वहां तो अनेक साधु ,तपस्वी , संत मठ ,मंदिर ,आश्रम  दिखते भी हैं। जहां मोक्ष निर्वाण का कारोबर चलता हैं जहां  परमानंद -आत्मानंद की अकथ कथा का प्रवाह भी शिलाखंडों व हिमखंडों को‌ चकनाचूर कर आगे प्रयाण करते कल कल निनाद करते  रहे हैं।
   पर सच तो यह है कि  हिमालय की ओर आजकल  युवाओं का ज्यादा आकर्षण बढ रहा  हैं। वहां बड़ी तेजी होटल, रिसार्ट, होम स्टे ,रेस्त्रां ,पब और विविध मौज मस्ती एंव  पर्यटन व मनोरंजन उद्योग  के केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। पैराग्लाडिंग, ट्रेकिंग  ,रीवर राफ्टिंग, जीप लेने जैसे साहसिक कारनामें यदि जीवन संघर्ष में काम आये तो किसी  हठयोगी की तप साधना के प्रतिफल से कमतर नही समझना चाहिये। हमें योगी नही सस्टनेबल भोगी चाहिये तो वसुंधरा के वैभव को चक्रवर्ती सम्राट की तरह भोग सके। पारिवारिक कलह या आर्थिक संकट से भयभीत होकर झोला उठाकर कही भाग न जाये बल्कि शुतुरमुर्ग ही सही गर्दन रेत में घुसा कर डटे रहे या कछुए की मांनिंद भीतरी घर में या बीबी के पल्लु तलें ही बैठ कर मुकाबला करे ...
     हिमालय व देवभूमि  दर्शन  वैराग्य भाव को जागृत करते थे अब राग ,रति ,रंग हिमालय ही जगा रहे हैं। राग -वैराग्य का अनुठा समन्वय वहां द्रष्टव्य हैं। हमलोग हिमालयन व्यु पांइट को अब इंडिया का स्वीट्जरलैंड कह महाआनंद में निमग्न हो जाते हैं। सच कहे तो आसपास बार व बार बलाएं हो, तो इंद्रलोक को पछाड़ दे और गर फिरदौंस ... जमी अस्त कहके उस जहांगिर को चुनौति दे कि केवल कश्मीर ही नही रोहतांग से लेकर नाथुला तक जगह -जगह पर ज़न्नत ईज़ाद कर लिए गये हैं। अब बहत्तर ही क्यों पचहत्तर हुरें सुबह ए शाम मौज़ूद हैं।
  जहां  संन्यास  की दीक्षा ली जाती थी अब उसी भूमि व पावन स्थल में सुहागरात मनाकर गृहस्थ की शुभारंभ करने  लगे हैं।  यही बदलाव है भाया-" अब नइ सहिबो बदल के रहिबो ।"  पांडव लोग महाभारत युद्ध जीत कर विजय के प्रमाद मदमस्त स्वर्गरोहण करने या कहे   मरने हिमालय  गये अब भी कथित विजेताओं द्वारा यह किये  जाते है पर अब जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं।उनका तो स्वागत सत्कार होना चाहिये न कि .... 

     बहरहाल  आइये हिमालय  दर्शन कीजिए और प्रकृति की प्रेम में निमग्न हो परमानंद में खो जाए ...और स्वामी अनिलानंद की भजन में डूब जाय -

कोई काहु में मगन कोई काहु में मगन 
मिटे सारे भ्रम हो प्रसन्न अन्तर्मन 
कोई गाये भजन कोई करे रमन ...

बाकी अंतरा कभी बाद में ...

"अगर बर्दास्त कर सको  तो"  हमारे नये आकार ले रहे कथेतर संग्रह से

Friday, November 17, 2023

स्त्री

८ मार्च महिला दिवस पर...हमारी  वर्षो पूर्व  लिखी कविता द्रष्टव्य है -  
 
"लड़की"

महुंए की फूल है 
न जाने कब टपक पड़े 
ख़ानाबदोश है 
कब कहां डेरा पड़े
सच कहें तो
शीशी है इत्र की 
ढीली हुई डांट 
कि गंधाती उड़ पड़े 
दहलीज़ फांदते ही 
ऊग आतें हैं 
असंख्य पर 
उड़ना चाहती हैं
वह भी 
स्वच्छंद आकाश पर 
पर ,पर कतर दी जाती हैं
कहकर कि तुम 
घर की इज्जत हो 
तुम्हारे बाहर जाने से
किसी से युं ही
हस बोल लेने से 
या किसी को शक्ल 
दिखा / दिख जाने मात्र से  
वह चली जाएगी 
जिसे पुरखों ने 
वर्षों प्रखर पराक्रम से 
अर्जित किया हैं
भले पुरुष 
और उनके परिवार
उसे भुनाते समृद्ध हो
किसी के इज्ज़त  
से खेलते रहे 
मान मर्दन कर 
अट्टहास करते रहें
पौरुष प्रदर्शन कर
उपहास करते रहे
हास परिहास करते रहे
ऊपर से यह सुक्ति 
गजब की यह युक्ति 
बिन राग रति रंग के 
भव में बुड़े
और संग इनके 
भव से तरें  
पाते पुरुष मुक्ति 
नरक द्वार से 
गूंजते सुदूर कही 
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते  
रमन्ते तत्र देवता  !
तब मासूम सा 
एक सवाल 
कि देवी कैसे,
और कहां रमती है? 
तलाशती फिरती
सकल ब्रम्हाण्ड 
जारी है यात्रा
दहलीज़ भीतर  
मुगालते में बाहर 
खाट पर बैठें 
लटकते ताले सदृश्य 
कठोर पुरुष 
भले वे हो लुंज -पूंज
घुत्त नशे में 
या हो अशक्त 
वृद्धा कोई जो 
कोमलांगी तो है 
पर ओढ़े हुए पौरुष
ढ़ोते हुए भार 
कठोर- कुरुप 
बेचारी लड़की
औरत बेचारी 
बेचारी नारी ..!!!!

पिता ,पति- पुत्र 
के अधीन सदा 
नारी तेरी अधीनता 
रही है मर्यादा 
और यही है 
नारी की अस्मिता 
नारी की गौरव गान 
बालबिल कुरान गीता
गाई गयी असीम महिमा 
पर कहीं न कहीं 
है एक घड़ा रीता 
तलाशती स्वयं अपनों में 
अपनी ही अस्मिता 
द्रौपदी रुक्मणी राधा 
सीता अहिल्या सूर्पनखा   
लोई आमिन यशोधरा 
मरियम रजिया सफरा 
बेटी बहु बहन बन कर मां 
हुआ जग में न्यारा ...

- डा. अनिल भतपहरी

चित्र -जीवन संगिनी श्रीमती अनीता भतपहरी (उसे ही समर्पित यह कविता । )

Friday, November 10, 2023

कन्फ्युज्ड

#anilbhatpahari 

।।कन्फ्युज्ड ।।

है भी ना 
भी है ना 
ना भी हैं
है भीना
हैभी ना  
हैंना भी 
भीना है 
भीहैंना 
नाभीहैं
हैंभीना 
हैंभीना के 
नाभी मे हैं भी 
हैना के नाभी में है 
नाभी में हैं न 
नाभी में हैं
इस तरह यहां
बातों -बातों में 
बतडंग करने 
की परिपाटी हैं
लालबुझ्झड़ 
और बतड़ग भैये 
ही बस खाटी है
बाकी दो कौड़ी की 
मिलावटी हैं
नेति-नेति की 
आरती है 
यहां लोगन  
भांति-भांति हैं
जो गूंगे- बहरे है 
जो अंधें- संधे हैं
उसे ही शांति हैं 
जो न सुने 
जो न बोले 
जो न देखें
जो कुछ न सोचें 
जो जिये और मरे 
पर कुछ भी न करे 
ओ निर्मोही 
ओ निर्दोषी 
ओ बैरागी 
ओ तपसी 
ओ मुनि
ओ जति 
उनके भी 
है क्या गति 
कैसी  मति 
है उनकी 
सुध न उन्हें 
तन- मन की 
क्या करे कल्याण 
जन मन की 
जो काम न आवे 
किसी की 
लगता है 
ओ सनकी 
या फिर शिकार 
किसी के हनक की 
क्या मतलब 
ऐसे जिनगी की  
पर उसे क्यों 
ढोते लोग 
बातों में उनके 
खाते गोते लोग ..

     - डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514