Sunday, December 25, 2022

सुरुज

सुरुज 

ये जुड़जुड़हा टुरा 
सुरुज हर 
कलेचुप आथे 
कांपत ठुठरत 
अल्लर चले जाथे
दिन भर बिचारा
अघातेच सिहरथे 
ले दे के उथे 
मनटुटहा किंदरथे 
अउ झटकुन बुड़थे 
बिक्कट रहिस उतअइल 
होगे हवय निच्चट सरु 
ओढे हे बादर के कथरी  
होत हे बिचारा बर बड़ गरु 
ओकर बरन देख के 
लगथे करलई 
उतर गे रउती 
कहां गय ओकर तपई 
सब दिन बरोबर रहय नहीं 
काकरो अतंलग चलय नहीं 
सबके दिन बहुरथे 
बेरा ह बड़का ये 
अनिल कहिथे 
 तौनो हर  ठउका हे  

-डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, December 17, 2022

सिरजन

#anilbhatpahari 

   सिरजन 

जउन हर जीत लेथे  मन 
ओहर होथे बिकट मगन  
जउन करथे मन समर्पन 
उहु गाथे मगन गीत-भजन
जब मिलथे एक दुसर ले मन  
तभेच  होथे सुघ्घर सिरजन  

      -डाॅ. अनिल भतपहरी /९६१७७७७५१४

Monday, December 12, 2022

करे श्रेष्ठ सृजन

#anilbhatpahari 

एक मंचीय तुकबंदी कविता 

   ।। करे श्रेष्ठ नव सृजन ।।

अतीत उज्ज्वल रहा तो वर्तमान क्यो अंघेरा हैं

आत्म मुग्धता के चलते कोहरा बड़ा  घनेरा है

चंद लोगों के ऐश्वर्य  गान से कब तक  मोहित रहे 

गिरेबान झांक देखे सब मन विष्णन तन लोहित रहे 

घरा पर उन्ही का स्वर्ग जो इस धरा को नर्क किए 

अपने स्वार्थ के चलते सुन्दर देश का बेड़ा गर्क किए 

महादेश में गर्व से अधिक शर्म करने का भी दास्ता हैं

इसलिए तो यहाँ सबकी अलग अलग मंजिल रास्ता हैं

महल मंदिर  के सिवा जन मन का अवशेष क्या है?

राजा रानियो के सनक से सिवा और विशेष क्या है?

आजादी के बाद   आई  समृद्धि यह संविधान  से है 

फिर भी संशय उन्हें जो मोहित पुरा छद्म यशगान से है

 कुछ गिरोह फिराक में लगे हैं बदलने संविधान को 

दिए जा रहे हैं बढ़ावा  कल्पित मिथकीय यश गान को 

कितनी कुरीतियों अमानवीय बर्बरपन का दंश रहा 

जिनकी लाठी उनकी भैस कबीलाई संस्कृति का अंश रहा 

चंद उंगुली में गिने उनसे कुछ होने वाला नहीं ‌है

अधनंगे भूखे जन जीवन सहज एक निवाला नहीं हैं 

संप्रभूता को भोगते जो कैद कर रखा हैं  उजास  को 

प्रवक्ता बना फिरता हैं जो उपलब्धि माने निज विकास को

आत्ममुग्धता से बाहर निकल कर आओं करे  कुछ चिंतन मनन 

स्वर्ग मोक्ष सतलोक परलोक से उबर कर प्यारे करे  श्रेष्ठ नव  सृजन 

         - डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, December 8, 2022

सतनामियों अहिरों में अन्तर्संबंध

अहिरों  और सतनामियों में अन्तर्संबंध 


छत्तीसगढ़ की ढाई करोड़ जनसंख्या  में 10-12% सतनामियों की आबादी हैं।  शेष अन्य  धर्म /जातियाँ  है जिसमें प्रमुखतः आदिवासी , हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई हैं। इसमें अनु जाति वर्ग की जातियाँ  मोची , मेहर ,महरा,  गाड़ा   घसिया आदि 4-6% लोग है । जबकि इसी वर्ग मे सतनामी आते है। इस तरह  भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति की श्रेणी  में 14-16% लोग आबद्ध है। 

हालाँकि ब्रिटिश काल में सतनाम एक स्वतंत्र रिलिज़न था। और उनके पर्व तीज त्योहार मान्यताएँ आदि हिन्दू धर्म से अलग तरह के हैं। इसलिए इन्हें पृथक मान्यताएँ दिया गया था। 
        अतएव इस आधार पर और तथाकथित अभिजात्यों के दुर्व्यवहार से पृथक धर्म हेतु संघर्षरत हैं।

   जबकि  1918-20 के सतनामी -हिन्दू महासभा का 
गठन कर सामाजिक टकराहट को  रोकने की दिशा में प्रयास हुआ  था।अनेक तरह के रचनात्मक कार्यक्रम के लिए 1921 में  सतनामी आश्रम रायपुर की स्थापना हुई।  इनके माध्यम से इन  दोनो संस्कृति व समुदाय में परस्पर सौहार्दपूर्ण परिस्थितियाँ निर्मित हो यह भी एक प्रमुख कारण रहा हैं।  इसी बीच देश में आज़ादी की लड़ाई तेज हुई और गाँधी जी का अभ्युदय हुआ । वे छत्तीसगढ़ में तीन प्रमुख घटना व कारण हेतु सघन दौरा हेतु आए -
  पहला - कंडेल नहर सत्याग्रह  , धमतरी 
 दूसरा - जंगल सत्याग्रह  तमोरा महासमुंद 
तीसरा - गोवध आन्दोलन  ढाबाडीह , करमनडीह  बलौदाबाजार । 
     इनमें धमतरी और बलौदाबाजार का दौरा महात्मागांधी जी ने किया और तात्कालीन समय में यहाँ के सत्याग्रह व जनान्दोलन से बहुत गहराई से प्रभावित हुआ। वे सतनामियों के धर्म गुरु अगमदास गुरु गोसाई व  72  संत -महंत से मिले और उन्हें बधाई देते राष्ट्रीय आन्दोलन में साथ/ सहयोग  देने अपील किए ।फलस्वरुप छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सतनामियों में मिलते हैं। 

   1915 में सलौनी बलौदाबाजार के सतनामी   राज महंत नयनदास महिलांग जी राष्ट्रीय परिदृश्य पर  गोवध आन्दोलन के प्रणेता थे। उन्होंने  इसके लिए सतत संघर्ष किए उनके अनन्य सहयोगी पलारी निवासी मदन ठेठवार जी थे। जो यादव समाज का प्रतिनिधित्व किया करता था। 
ब्रिटिश सरकार बांबे से कलकत्ता रेल्वे लाईन में निपनिया स्टेशन मांस निर्यात के बनाया था । और इनके आसपास दो बड़ा मवेशी बाजार थे एक बलौदाबाजार और दूसरा किरवई  बाजार । यहाँ कृषक छोटे पशु बछवा  पाडा व बांझ गाय भैसी या बच्चे न जन्मती बुढ़ी गाये व भैसं बेच देते थे। उन्हें  करमनडीह ढाबाडीह कसाई खाना ले जाते। और माञस निपनिया स्टेशन से रेल द्वारा बांबे कलकत्ता मद्रास आदि पहुचाए जाते । महानदी व शिवनाथ कछार की पशुधन का इस तरह इस्तेमाल होते थे ।
   उन्हें रोकने महंत नयनदास महिलांग पर्चे छपवाकर बाटते कि जो गाय - भैसी  बेचेगा  वो अपने वृद्ध   मा छोटी  बहन बेचेगा और जो बैल व भैसा वो  वृद्ध पिता व सगा भाई को ।  यह मार्मिक अपील से सामाज को गहराई से प्रभावित किया और भीषण आन्दोलन का स्वरुप लिया ‌ । फलस्वरुप ब्रिटिश  सरकार ने  दोनो जगहों से बुचड़खाना हटाए गये।
    उस समय पंथी गीत गाए जाते -
 झन मारो कसैया
 मै गैया हव जी
 मत मारो कसैया ...

 

    इन दोनों की युति ने अभूतपूर्व कार्य किया फलस्वरुप गांधी जी इनके कार्यों से प्रभावित होकर पलारी बलौदाबार परिक्षेत्र का दौरा किया । जिसके कारण सामाजिक सद्भाव कायम हुआ। 
    
  कृषक समुदाय सतनामी समाज गोपालक समाज है । और उनमें गोधन के प्रति बेहद लगाव व आस्था हैं। उसे वह सम्पदा के रुप में मानते हैं। उस गोधन के चरवाहे और सेवादार तथा उनके बनिस्बत आजीविका चलाने वाले रावत यदु वंशी समाज सतनामियों के बेहद निकट हैं। 
    असल में सतनामियों और अहिरों (यादवो) के बीच का संबंध उनके मूल उद्गम क्षेत्र नारनौल  अरावली के तराई से लेकर मथुरा यमुना नदी कछार तक की बसाहट   से संदर्भित जान पड़ता है।
    ब्रज क्षेत्र मथुरा में यदुवंशियों का जमघट व सघन बसाहट हैं। इसी क्षेत्र में भगवान कृष्ण का अवतरण व पालन पोषण मथुरा व  गोकुल गाँव में हुआ।  फलस्वरुप उनके प्रति भाव भक्ति यादव व सतनामियों में समान रुप से देखे जा सकते हैं।
   सतनामियों में श्री कृष्ण चरित रहस  और पंडवानी गायन की परंपरा है। इन कलाओं को  ये  लोग अपने साथ लेकर छत्तीसगढ़ में  1662 के मुगलकालीन सतनामी विद्रोह के पश्चात   आव्रजन किए ।
    तत्कालीन मुगल बादशाह  औरंगजेब का शाही फरमान था कि सतनामियों का नामों निशां मिटाकर उन्हे नेस्तानाबूत कर दिया । क्योंकि वे उनके भाई और मुगल वारिश दारा शिकोह के सहयोगी सतनामियों को मिटा देना चाहते थे। दारा शिकोह को सतनामियों का सादगी पूर्ण जीवन वृत्त और  निराकार निर्गुण भक्ति  भाते थे। और अनेक संत महंत से उनकी आत्मीय संबंध थे। 
     सतनामियों की जीवटता व साहस और दाराशिकोह से मित्रता खटकने लगे फलस्वरुप सतनामियों से भीषण संग्राम कर 5000 लोगो का कत्लेआम करवा दिए और नारनौल से बच्चे बुढे महिलाओं को  निर्वासित करने मजबूर किए ... फलस्वरुप देश के आंतरिक भागो में सतनामी बिखर गये।
     मथुरा क्षेत्र के सतनामी छत्तीसगढ़ में ब्रज की संस्कृति और कृष्ण भक्ति लेकर आए। 
  उनके पारंपरिक पंथी गीतों में कृष्ण भक्ति द्रष्टव्य हैं -

ए पार गोकुला अउ ओ पार मथुरा 
 बीच में जमुना के धारा के हो ललना 
सन्ना न रे नन्ना नन्ना हो लालना 
सन्ना न रे नन्ना नन्ना हो लालना 
खेले बर आए हे खेलाए बर आए हे 
खेलत खेलत जग मोहे हो ललना ...

छत्तीसगढ़ में आव्रजित समुदाय को  झरिया और कोसरिया दो भागो मे बाटा गया है । जो यहाँ आबाद है।  शाब्दिक रुप से झरिया का आशय झारखंड होकर आए और कोसरिया मतलब प्राचीन कोसल वासी । दूसरा जो झाड़ जंगल उजाड़ कर बसा वो झरिया हुआ। और जो पूर्व से बसा रहा कोसरिया । कोसरिया झरिया के अपेक्षा प्रतिष्ठित हैं। 
  यह दो  समुदाय  सभी जातियों में मिलते हैं। इन दोनो वर्गों से  सतनामियों का समागम हुआ। 
     झरिया और कोसरिया परिश्रमी समुदाय खासकर हिन्दू धर्म के शूद्र ओबीसी कहे जाने वाले समुदाय में खासकर रावत , नाई , धोबी , कुम्हार ,लोहार , तेली , कुर्मि आदि में पाए जाते हैं।  
      सतनामियों के छत्तीसगढ़ आगमन 1662  और 143  वर्ष बीत जाने के बाद 1795 में    गुरुघासीदास ने सतनाम पंथ का पुन: प्रवर्तन  किया ।और अपने सरल सहज धार्मिक / आध्यात्मिक सिद्धान्त से यहाँ के जनता जो प्रभावित कर सतनाम पंथ में दीक्षित किया ।इसमें सर्वाधिक अहीर और तेली समुदाय सम्मलित हुए तथा लगभग 65 जातियाँ सतनामी बने । सतनाम पंथ में  तेजी से धर्मांतरित  हो जनता को रोकने का षडयंत्र भी हुए और  सतनामियों को बहिष्कृत कर उनसे भेदभाव व अस्पृश्यता का व्यवहार किए जाने लगे। फलस्वरुप धर्मातंरण   थम सा गया।और सात्विक व आचार विचार में परिष्कृत समुदाय आश्चर्यजनक ढंग से अस्पृश्य कहलाने लगे। उनके साथ संघर्ष हेतु अहिरों को ही सामने लाए गये ।फलत: अनेक ग्रामों व जगहों पर दोनो के मध्य झड़पे भी होने लगे थे।
    
बहरहाल  देखे तो छत्तीसगढ़ की सर जमीं में सर्वप्रथम जातिविहिन समुदाय का संगठन  सतनाम पंथ अस्तित्व में आया। जिसमे कोई चमत्कारिक ईश्वर मंदिर मूर्ति आदि की पूजा नही अपितु परस्पर प्रेम सौहार्द से एक दूसरे से व्यवहार करना था। सत्य के प्रति अटूट निष्ठा रखते परिश्रम पूर्वक सादगी पूर्ण जीवन निर्वहन करने का व्यवहारिक सूत्र गुरुघासीदास ने दिया। जो हर परिश्रमी समाज के लिए ग्राह्य था।
     सतनामियों और अहिरों में बहुत सा गोत्र समान हैं। इससे ऐसा लगता हैं। कि यह पहले एक ही परिवार के सदस्य थे। गोपालक समाज होने से इनके गुरु को गोसाई कहे जाते थे। गुरुओं के गोत्र घृतलहरे हैं। जो धृत के अधिपति होते थे। और गात भैंस पालक थे। इनके घर चरवाहे अहिर होते थे। फलस्वरुप गांव गांव में दोनो समुदाय में सौहार्दपूर्ण परिस्थितियाँ  बना हुआ हैं। हालांकि बीच बीच में विध्न संतोषियो द्वारा इन दोनो वीरोचित भाव वाले स्वाभिमानी समाज को परस्पर संघर्ष करने उकसाते भी रहे हैं। पर जल्द ही इनमें मैत्रीपूर्ण भाव स्थापित हो गये हैं। और अब समन्वय भाव से  रहते आ रहे हैं।

  दोनो समुदाय में कुछ ऐसे गोत्र हैं। जो एक समान है -  सोनवानी , कोसरिया , गायकवाड़ , रौतिया , बंधैया , छंदैया  , महिषा,  भैसवार , करसायल सोनवानी  पहटिया ,पटैला ।
    इस तरह हम देखते हैं कि सतनामियों और अहिरों में प्राचीनकाल से ही अन्तर्संबंध स्थापित हैं। और यह संबंध अत्यंत प्रागढ़ हैं। मीत -मितानी सहिनाव और अन्तर्राजातीय विवाह से रिश्ते नाते भी स्थापित हैं।  
      छत्तीसगढ़ में रावत और सतनामी की भाषा और संस्कृति एक सा है गोत्र और कुल देवता एक सा ही रहा होगा । कृष्ण और गुरुबालकदास की एक दिन जयंती  होते है। घूमधाम से उत्सव मनाए जाते हैं।  
 कृष्ण की बहन और गुरुपुत्री राजा गुरुबालकदास की बहन सुभद्रा एक सा ही नाम हैं। और दोनों पूज्यनीय हैं।
   इस तरह  देखे तो ऐतिहासिक सामाजिक राजनैतिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अहीरों और सतनामियों  में बहुत ही समन्वय भाव द्रष्टव्य हैं। दोनो समुदाय की नृत्य कला शौर्य व भक्ति नीति व कर्तव्य से परिपूर्ण हैं। जिसके आधार पर सांस्कृतिक तथ्य और  परिस्थितियाँ  अधिकांशतः  परिपूर्ण  हैं। 

     जय छत्तीसगढ़ ...

   डा. अनिल कुमार भतपहरी 
     ( 9617777514 )
    सी- ११/ ९०७७ 
   सत श्री ऊंजियार सदन 
 सेंट जोसेफ टाऊन , अमलीडीह रायपुर छ