Sunday, June 26, 2022

सतनाम बनाम सनातन

भारतीय जनमानस में‌ सतनाम की सात तरह की विशिष्ठ ध्वनि है - सत्थनाम , सच्चनाम , सत्तनाम , सत्यनाम  सतिनाम  सतनाम और शतनाम । ऐसा जान पड़ता है कि सतनाम  शब्द प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता मे भी व्यवहृत होते रहे है।  श्रमण और कृषि संस्कृति में  सतनाम साधक व सुमरन करने वाले समुदाय बेहद प्राचीन संस्कृति के लोग हैं। वयोवृद्ध पुरातत्व वेत्ता पद्म श्री अरुण शर्मा जी ने यह स्थापित किया है कि सिन्धु घाटी मे प्राकृतिक विपदा के उपरान्त वहां से लोग आव्रजन कर इधर ऊधर बिखर गये उनमे कुछेक लोग महानदी घाटी सभ्यता मे आ बसे मातृका पूजा और शव दफनाने की क्रिया तथा सतनाम सुमरन आदि वर्तमान सतनामी करते है यह गौर वर्णी चित्ताकर्षक और सिन्धु घाटी के नस्ल से बहुत समनाताए रखने वाले समुदाय हैं। "

बुद्ध पूर्व 26 बुद्ध और हो चूके है । बुद्ध का आशय  बुद्धि या ज्ञान से है। जिन्हे मर्म का सत्य का ज्ञान हो चुका जो सब कुछ को समझ गया वही बुद्ध या ज्ञानी हैं।  राजकुमार सिद्धार्थ को सत्य का  बोध ( ज्ञान) हुआ तो वे ज्ञानी अर्थात् बुद्ध हुआ । 

  बहरहाल बुद्ध के अनेक नाम मे सच्चनाम भी एक नाम हैं।
यह नाम भावनात्मक रुप से है।
क्योकि वे राग द्वेष मोह से रहित होकर उनका चित्त मन हृदय सत मय हो गया था इसलिए  उसे  सच्चनाम कहे गये। आगे  वही क्रमिक विकास मे सत्तनाम हुआ।
सत्तनाम संत मत का लोकप्रिय शब्द है और यह कल्पित या मिथकीय  ईश्वर से अलग यथार्थ व ऐतिहासिक शब्द नाम हैं। सतपुरुष भी इसी तरह संत मत में ईश्वर के समनान्तर शब्द हैं।
     सतनाम पंथ में गुरुघासीदास को सतनाम बाबा  भी कहे जाते है ।इसका मतलब गुरु घासीदास सतनाम हो गया ऐसा नही हैं।
   सच्चनाम ठीक सतनाम बाबा जैसा संतो या अनुयाई द्वारा श्रद्धावश पुकारे गये नाम हैं।
एक प्राचीन पंथी गीत मे सतनाम का वर्णन इस तरह से मिलता है -

जपो जपो सतनाम मनखे के नोहय एहर नाम 
सत एक रद्दा ये जीव के सहारा ये 
ये ला पकडे ले भवसागर पारा हे 
सोचो समझो गा आज देखो परखो गा आज 
मनखे के नोहय एहर काखरों नाम  ...

    बहरहाल इतना तो अवश्य है कि  भारत वर्ष में प्राचीन वैदिक या  सनातन मत भी प्रचलन मे है जो आगे चलकर पौराणिक स्वरुप मे अलग - अलग सम्प्रदाय के रुप में संगठित होकर क्रमश:  शैव ,शाक्त वैष्णव के रुप में विकसित हुए इनमे घोर  प्रतिद्वंद्विता भी रही पर शैन: शैन :  लोकायत व  बौद्ध जैन आदि के अभ्युदय के बाद समन्वित होकर अवतार वाद लाकर सबको समन्यव किए गये । वैदिक व पौराणिक मान्यताओं को स्थापित कर एक अभियान के तरहत प्रतिष्ठापित कर दिए गयें।
 आगे चलकर    त्रिदेव सहित  राम कृष्ण और उनके परिजन आदि  को मानने लगे  है। इन के प्रतिरोधी स्वर को साम दाम दंड भेद जैसे नीति के चलते‌ बहुतों  को शूद्र वर्ण देकर  मिला लिए गये और बहुतों का  बहिष्कृत कर दिए गयें। उन्हे अवर्ण या अस्पृश्य धोषित कर दिए गये।
    यह समुदाय जो कभी प्राचीन बौद्ध धर्म के महायानी हीनयानी और सहजयानी थे उन्ही वर्गो समुदायों मे संतो गुरुओ का आगमन हुआ और वही लोग सतनाम का अलख जगाए।वर्तमान मे सिख सतनामी कबीरपंथी रैदासी वगैरह तमाम समुदायों मे केवल " सतनाम  "  के कारण परस्पर सौहार्द्र स्थापित होने लगे है। उपसना और कुछेक मान्यताओं मे अंतर हो सकते है पर सत ज्ञान और परस्पर सहयोग के मामले मे सभी सतनाम के अनुयाई  अपने अपने धर्म गुरुओ और प्रवर्तकों के संदेशों के अनुरुप समान ही हैं।
ढोंग पांखड और चमत्कार आदि के जगह कर्मवादी और पुरुषार्थ से भरा हुआ आदर्श समाज की संरचना गुरुओं के कारण हुआ हैं।
   वे लोग जाने- अनजाने में छोटी- मोटी संकीर्णताओं व मान्यताओ के आधार पर सतनाम के मार्ग से न भटके और न  ही परस्पर प्रतिद्वंदिता रखें। अन्यथा सदियों से यथास्थितिवादी लोग सतनाम की नव प्रवर्तन स्वरुप को विकसित और प्रतिष्ठित होने ही नही देंगें।
        सतनाम 

Saturday, June 4, 2022

साहित्य और समाज के लिए

#anilbhatpahari 

      शनिवारीय चिंतन : 

  साहित्य और समाज के लिए 

          भारतीय परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी चेतना खात्में की ओर हैं।हालांकि साहित्य में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के नाम पर वह अब भी पाठ्यक्रम और कथित बौद्धिक जगत में विराजमान हैं। यह ऐसा भी है कि नये चयन प्रकाशन और वितरण की झंझट कौन पाले ? शायद इसलिए भी विगत 40-50 साल से  वही चला रहा है ‌। अध्यापक,विद्यार्थी  और पाठक एकतरह कोरे बुद्धिजीवी टाईप  रुढ -मूढ सा हो गये हैं। एक जड़ता सा यहां नज़र आते हैं।  
          वर्गीय समुदाय के एकीकरण और उनकी अपनी अस्मिता के संरक्षण और प्रतिष्ठापन का समय चल रहा हैं।  यहां जीवंतता है पर वह  साहित्य में अब तक गंभीरतापूर्वक यही बौद्धिक (मध्यम ) वर्ग  क्यो नही ले पा रहें है?  इन प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए। ऐसा लगता है कि यह बौद्धिक वर्ग अपनी ओढ़ी हुई केचुंल  उतार सरल सहज होना नही चाहते और जो अभिजात्य है उस तरह जटिल बन नही सकते। 
              ‌     - डा. अनिल भतपहरी

Friday, June 3, 2022

ये क्या हो रहा है ?

शनिचरी चिंतन 

ये क्या हो रहा है ? 
मिथक का इतिहास या इतिहास का मिथकीय करण !!!
और हा अब तक की सभ्यताओं मे मानव तो मानव बने ही नही ।जाति प्रजाति धर्म वाले जरुर बनते रहे ...
सचमूच आज गुरुघासीदास बाबा स्मृत होने लगे जब वे जगन्नाथपुरी के सागर तट पर  सहजता पूर्वक उद्धोष करते दो टूक कहे थे - " मनखे करिया होय कि गोरिया, ये पार के( सागर पार ) होय या ओ पार के मनखे  मनखे  एकेच आय।" 
  पर कोई उनकी यह बात समझे तब ? 
विभेद ही सारे संधर्ष द्वंद और युद्ध  का मूल है और अब तक यही होते आ रहे है।येन केन प्रकरेण  विजेता श्रेष्ठ ,आर्य व देव  और हारे हुए लोग अश्रेष्ठ ,अनार्य व दानव धोषित होकर  हेय ,दास ,दस्यु, राक्षस  कहलाएं।
और हजारों वर्ष हुए संधर्ष जो मिथकीय भी हो सकते हो को धार्मिक आधार देकर आज तक इन वर्गों के ऊपर संधातिक हमले और अनेक तरह‌ के जुल्मों सितम होते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि किसी से लड़ने और जीत कर अपने अहं भाव को तुष्ट करना ही मानवीय प्रवृत्तियाँ बन चूके हैं। उन्हें अनेक तरह के जाति -उपजाति गोत्र आदि में विभाजित कर भेदभाव छूत -अछूत धोषित कर धार्मिक मुलम्मा चढा दिए गये जो आज भी कथित धार्मिकों के सर चढ़कर बोलते हैं। दुर्भाग्यवश ऐसा करने वाले  ही धर्मनिष्ठ व संस्कारी समझे जाते हैं। फलस्वरुप आम जन जीवन में  होड़ लगी हुई हैं कि कैसे कितने लोगों से अमानवीय जुल्म करे भेदभाव करे तो हमारी भी सनातन या हिन्दू संस्कृति में अच्छी रेटिंग होगी ।हमें धर्मनिष्ठ माने जाएन्गे इस मुगालते में शुद्रों में भी यहाँ तक एक ही जाति संवर्गों में  भी  खान पान रहन सहन में भेदभाव  परिव्याप्त है। प्रभावी कानुन के बावजूद देश भर में यह कुप्रथा विद्यमान हैं। आए दिन लोमहर्षक और दिल दहलाने वाली घटनाएँ घटती हैं।
      यदि वर्गीकरण आवश्यक है तो  गुण व स्वभाव के अनुरुप श्रेणी बद्ध होते  तो देश  व समाज की स्थित आज अलग होता। परन्तु  वह परिक्षेत्र प्रजाति रंग व बनावट के आधार पर भेदभाव जन्य हुआ। यही मानवता के लिए अभिशाप हुआ। फलस्वरुप भारत की छवि शेष विश्व में अच्छी नहीं हैं। और न यहाँ की समाजिक व्यवस्था प्रशंसनीय हैं। भले हम मुगालते में रहे कि हमारी सभ्यता आजतक कायम हैं। पर पशुवत बने हुए होना कीर्तिमान नहीं हैं।
        इकबाल का शेर का सही भावार्थ -"कुछ बात की हस्ती मिटती नहीं हमारी " यह साफ समझ आते हैं कि यह परस्पर सौहार्द नहीं बल्कि जातिवाद ही हैं। जो कभी जाती नहीं ।शायद इसलिए वजूद कायम हैं, इसलिए भी शायद चंद सुविधा भोगी तत्व इन्हे कायम रखने  संस्कृति संरक्षण करते आ रहे हैं। 
      जबकि आरंभ  से जन्मना ऊच नीच भाग्य भगवान के अपेक्षा सद्व्यहार कर्म आदि की बातें भी छिटपुट हुआ भी  परन्तु वह अनसुनी व अग्राह्य रहा। यह प्रवृत्तियाँ यथावत चला आ रहा हैं। इसका कारक केवल असमानताए ही नहीं अपितु आय का असमान वितरण और राजतंत्र व  धार्मिक प्रतिष्ठानों में कैद संपदा के कारण ऊपजी मनोवृत्तियां हैं। 
     यदि इन संपदाओं को  राजसात  कर देश की आधारभूत समस्याओं के निदान हेतु कार्यारंभ करे तो भारतीय संविधान की मूल अवधारणाएं सहज ही साकार होगा। देशवासी सुखी व समृद्ध होंगे साथ ही वैश्विक  कीर्तिमान स्थापित हो सकेगा।  हमारे साधु संतो और राजनेताओं  की आकांक्षा भी  कि विश्वगुरु होन्गे वह भी चरितार्थ होगा। बशर्ते वे लोग कथनी -करनी समान रखे । क्योंकि जनमानस के ऊपर इनका  गहरा  प्रभाव हैं।
     पर यह क्या देश की संपदा का  आम जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग  करने के नये ढंग ( ढोंग ) आरंभ हो गया सभी राज्यों में ऊची प्रतिमा निर्माण की प्रतिस्पर्धा निकल पड़े हैं चाहे वह पटेल शिवाजी डा अम्बेडकर बुद्ध  श्रीराम हनुमान जटायु  आदि जैसे ऐतिहासिक या पौराणिक पात्र हो।  पर्यटन उद्योग के बहाने से बातों ‌को डायवर्ट तक किए जा रहे हैं।
     बहरहाल यह सब  जनमानस के दिलों में है उसे धूल- धक्कड़ खवाने कौव्वे चील गिद्धों के विष्टा गिराने  की जरुरतें ही क्या है। पुल सड़क अस्पताल स्कूल कालेज प्रतिष्ठान बनावे और राष्ट्र को समृद्ध करे।
                डा. अनिल भतपहरी 

प्रात: परिभ्रमण करते नीलगिरी के तले से ...