[6/10, 15:14] dinesh sadh: दिनेशकुमार साध सतनामी,
नारनौल शाखा.
भारत में सतनामी समाज का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। क्योंकि यह समाज बहुत ही आध्यात्मिक समाज रहा है जिसकी मिसालें सन 1672 में औरंगजेब से युद्ध के ऐतिहासिक वर्णन में पढने को मिलता है। चूंकि औरंगजेब के शासनकाल में किसी को भी इतिहास लिखने की मनाही रही इसलिए उस समय का वर्णन किसी भी इतिहासकार ने नहीं लिखा था। बाद में कुछ गैरसतनामी इतिहासकारों ने सतनामियों के इतिहास के साथ न्यायपूर्ण नहीं लिखा है लेकिन अंग्रेज और फारसी इतिहासकारों ने सतनामियों की बहादुरी का जो बखान किया है उससे हमें हमारे पूर्वजों की वीरता का वर्णन जानने को मिलता है। इसमें से एक इतिहासकार मोहम्मद खाँ खफी रहे जो कि औरंगजेब की फौज में भी थे और उस युद्ध के चश्मदीद गवाह भी थे, ने औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब वे सन 1736 में नवाब हैदराबाद की रियासत में दीवान के पद पर रहे तब उन्होंने सतनामियों का इतिहास पूरी ईमानदारी से लिखा है कि किस प्रकार से सतनामियों ने ईरान से बर्मा तक के भूखंड पर राज करने वाले औरंगजेब की विशाल फौज को थोडे से सतनामियों ने ही नाकों चने चबवा दिये थे वह भी बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के। युद्ध में सतनामियों की शहादत के बाद बचे हुए सतनामी जिनमें अधिकतर महिलाएं, बच्चे और बूढे बचे थे, ने अपने को सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से वहां से हट कर भारत के अन्य क्षेत्रों में जाकर बस गये थे। उनमें से छत्तीसगढ के सोनाखान के जंगल में बसे सतनामियों में परम पूज्य बाबा घासीदास जी का अवतरण हुआ और समय पर उन्होंने छाता पहाड पर जाकर किस प्रकार से परम ज्ञान प्राप्त किया यह सर्वविदित है। जब उनके ज्ञान की सुविख्याति दूर दूर तक फैली और छत्तीस गढ के जनजीवन में उनके द्वारा एक सच्चे धर्म का प्रचार किया गया तो वहां के लोगों ने सहर्ष सतनाम धर्म को आत्मसात् किया। उसी का परिणाम है कि नारनौल में सतनामियों के अगुवाकार बीरभान जी के युद्ध में शहीद हो जाने के बाद सारे देश में फैले हुए सतनामी पंथ का प्रचार छत्तीसगढ में बाबा घासीदास जी ने, बाराबंकी में बाबा जगजीवनदास जी ने, राजस्थान में बाबा सबलदास जी ने गाजीपुर में बाबा .................. ने सतनाम धर्म की पताका लहराई। वर्तमान काल में सारे देश में जहां सतनामी पाए जाते हैं उनमें सतनामी सबसे अधिक संख्या में छत्तीसगढ में हैं। यहां पर अधिकांश सतनामी बहुत पढे लिखे औऱ शासकीय कार्यों में सेवारत हैं।
वर्तमान काल में छत्तीसगढ के सतनामियों में संख्याबल सबसे अधिक है लेकिन वहां आध्यात्मिक पक्ष और सामाजिक पक्ष का ताना बाना उतना मजबूत नहीं है जितना कि देश के अन्य भागों में बसे हुए सतनामियों में है। हमेशा वहां के सतनामियों में एक आम शिकायत सुनने को मिलती है कि हमारे यहां एकता नहीं है, सब एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं। आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि दुनिया के किसी भी धर्म, पंथ या समुदाय में टांग खिंचाई नहीं होती है। सभी जगह यही स्थिति है, लेकिन फिर भी वे सब आर्थिक तौर पर, आध्यात्मिक तौर पर, सामाजिक तौर पर संख्या में छत्तीसगढ के सतनामियों से कम होते हुए भी अधिक समृद्ध और मजबूत हैं। सब के यहां ग्रुप और खेमेबाजी होती है। लेकिन फिर भी वहां की तुलना में छत्तीसगढ की स्थिति का आकलन करते हैं तो हमें यहां के सतनामियों में असीम संभावनाएं और क्षमताएं नजर आती हैं। लेकिन फिर भी यहां पर कमजोरी कहां पड रही है, बहुत सोचने पर एक आकलन के अनुसार ये प्रतीत होता है कि छ्त्तीसगढ में कोई गुरू ग्रंथ का सृजन नहीं हुआ है जैसा कि बाकी सब क्षेत्रों के सतनामियों के यहां है। यही कारण है कि वहां पर भी अनेकता होते हुए भी समाज सम्पन्न और आत्मनिर्भर है। क्योंकि किसी भी धर्म का ग्रंथ उस समाज को बांध कर रखने की क्षमता रखता है। तुलना करनी हो तो कर सकते हैं कि देश में सरदारों का सिक्ख समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। देश का जैन समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। अग्रवाल समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। मुसलमानों का बोरी समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। दक्षिण भारत का अय्यर समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। दक्षिण भारत का शेट्टी समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। क्रिश्चियन समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त समाजों में आंतरिक मतभेद छत्तीसगढ के सतनामियों से कम हैं फिर भी उनकी सतनामियों से कम संख्या में होते हुए भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से ज्यादा अच्छी, मजबूत और स्वावलंबी है। इसका सीधा एक ही कारण है कि हमारे यहां कोई गुरू ग्रंथ का सृजन नहीं है।
अब समय आ गया है कि हम दुनिया के पीछे नहीं तो कम से कम बराबरी पर तो चलें। इसके लिए समाज के आध्यात्मिक प्रबुद्धजनों को इकट्ठा करके इस प्रस्ताव को रखा जाए कि यहां के सतनामियों का गुरू ग्रंथ का सृजन किया जाए। यह विषय पूर्णतः आध्यात्मिक होने के कारण इसमें सिर्फ उसी विचारधारा के लोगों और गुरू वंशजों का ही समावेश होना आवश्यक है। मेरे सुझाव पर अब कम से कम गंभीरता से विचार करके देखें, आप सब स्वयं महसूस करेंगे कि हां हमें अपने एक गुरू ग्रंथ की जरूरत है। मेरे मन में सिर्फ और सिर्फ एक ही बात आती है कि अपने जीवन काल में कम से कम छत्तीसगढ के सतनामियों की वहीं समृद्धि देखने को मिल जाए जिनका मैंने उपरोक्त वर्णन किया है। अगर गुरू जी की कृपा रही तो मुझे विश्वास है कि यह काम जरूर जरूर होगा।
सतनाम.
[6/11, 12:59] Anil Bhatpahari: मान दिनेश साध साहब जी
प्रणाम
जय सतनाम
आपका महत्वपूर्ण आलेख पढा और पढकर लगा कि आप सच्चे हितैषी हैं जो हमारे सर्वांगीण विकास हेतु चिंचित और उद्वेलित भी हैं। आपकी दर्द भी यहाँ के आध्यात्मिक पक्ष की कमियाँ देख छलक आते हैं। व्यवसाय जगत में निरंक स्थिति से आप सदैव दुखी नजर आते हैं। अनेक बार आप हमारे बीच आकर इस बात को बडे शिद्दत से रखते आ भी रहे हैं। फलस्वरुप धीरे धीरे हमारे कुछ युवा उद्यमी कुटीर व लधु उद्योग में जोखिम उठाने लगे हैं।
गुरुग्रंथ यानि गुरुघासीदास के सुरुचिपूर्ण चरित गाथा और मानवतावादी दृष्टिकोण को विकसित करने नीति व उपदेश परक रचनाओं की सतनाम पंथ (छत्तीसगढ )में कमी नहीं हैं।
अबतक १० महाकाव्य और 200 से ऊपर विश्लेषणात्मक पुस्तकें प्रकाशित है। जिसमें शोध ग्रंथ तक सम्मलित है। और अनेक पत्र पत्रिकाएं भी उपलब्ध हैं।
सत्य ध्वज और अब सतनाम संदेश समाज की १९९० से अबतक नियमित प्रकाशित हो रहे पत्रिकाएं हैं। जिनमें ५००० पृष्ठ लिपिबद्ध हैं। जो किसी भी अध्येता और शोधार्थी के लिए उपयोगी है।
सतनाम पंथ में 80% लोग गुरु चरित को अच्छी तरह जानते सनझते हैं।
पर यह समाज छत्तीसगढ़ में कर्मकांड रहित सादगी पूर्ण रहन सहन पर आधारित गुरु मुखी समाज हैं।
लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि अशिक्षा असंगठन और व्यवस्थित प्रचारको संचालको के अभाव में अपेक्षित प्रभाव नजर नहीं आते।
दर असल छत्तीसगढ़ी जनमानस चाहे वह सतनामी तेली कुर्मी आदिवासी जो भी हो वह इसी तरह से पहचान और अस्मिता हेतु संधर्ष रत हैं। कही कही तो ओबीसी समाज से सतनामी प्रभाव में बीस पडते हैं। शिक्षा व नौकरी में भी कम नहीं है।
हां निरंतर व नियमित धार्मिक आयोजन में जरुर फिसड्डी हैं। इसका कारण मठ मंदिर पूजा पाठ और दान दक्षिणा से रहित समाज हैं।
धीरे धीरे अब विगत २०-३० वर्षो में अनेक तीर्थ बन गये विकसित हो गये अब वहाँ सत्सञग प्रवचन भोग भञडारा होने लगे हैं। साधु व कलाकारों की अनेक मंडली देखने में आने लगे हैं।
राजनैतिक व प्रशासनिक ढंग से अनुपातिक प्रतिनिधित्व आरंभ से रहा हैं। पर इनकी प्रतिशत को और अधिक बढाने होन्गे। हमारे बच्चे अब अखिल भारतीय स्तर के प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित हो रहे हैं।
यह शुभ संकेत भी हैं। शैन शैन बेहतरीन होन्गे ऐसी उम्मीद हैं।
हा व्यवसायिक कृषि और व्यवसाय जगत में अभी तक कोई बडी उपलब्धि नहीं हैं। इस ओर ध्यान देकर आर्थिक मजबती लाना आवश्यक हैं।
साहित्य सृजन हेतु अब तो पहले से अधिक मेधावान साहित्यकार लगे हुए हैं। और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं।
आप सुदूर मुबंई में रहकर भी समाज के सर्वांगीण विकास हेतु चिंतित और सही मार्गदर्शन देते हैं। इसके लिए छत्तीसगढ़ शाखा के सतनामी समाज आभारी हैं । सदैव मार्गदर्शन लेते तत्पर रहते है आदरणीय व श्रद्धेय दिनेश साध साहब जी प्रणाम ।
इसी तरह की प्रेरक बाते आप यदा कदा देते और लिखते रहे ताकि जहां कमी है वह नजर आए और उसे दूर करने का सार्थक पहल किया जा सके ।
।।सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
[6/11, 13:31] dinesh sadh: आदरणीय,
आपको जानकारी के लिए बताना चाहता हूँ, हमारे साध सतनामी समाज की उस पीढी के कुछ लोग अभी भी जीवित हैं जिनके मुँह से हमने सुना है कि स्कूल में या पानी पीने की जगहों पर हमारे साथ अछूत का व्यवहार किया जाता था। लेकिन साध सतनामियों ने उस स्थिति को अपनी ताकत बनाया ना कि उस बारे में हीन भावना लाकर स्वयं को हतोत्साहित किया। अपने को आर्थिक तौर पर व्यापार के माध्यम से मजबूत किया। मजबूत बनने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत होती है। आत्मविश्वास के लिए आध्यात्मिकता की जरूरत होती है। आध्यात्मिकता के लिए सामाजिक संगठन और एकता की जरूरत होती है। किसी भी समाज में एकता और संगठन के लिए उस समाज का सामाजिक मान्यता प्राप्त धर्म ग्रंथ जरूरी होता है। धर्म ग्रंथ समाज की मर्यादा होता है जिससे समाज का मान सम्मान बढता है। इसलिए हम परिस्थितियों को सहन करके हमें अपना आर्थिक पक्ष, व्यावसायिक पक्ष और आत्मविश्वास का पक्ष स्वयं निर्माण करना पड़ेगा। इन सब के मूल में धर्म ग्रंथ की भूमिका सर्वोपरि होती है। अब आप सब स्वयं निर्णय लें कि छत्तीसगढ़ के सतनामी समाज के लिये क्या आवश्यक है।
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