जातिवाद और साम्प्रदायिक कट्टरपंथ से होकर गुजरता भारतीय समाज
वर्तमान समय सर्वाधिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। भले देश में डेढ़ दशक से अधिक पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं लेकिन बहुत तेजी से गैर हिन्दू जानता असुरक्षित महसूस कर रहें हैं।
आज़ादी के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े पार्टी और विचारधारा की सत्ता रही । उस समय विजनरी नेतृत्व थे फलस्वरूप देश के नव निर्माण में आधारभूत औद्योगिक इकाईयों की स्थापना आधुनिक तीर्थ के रुप में हुईं और उन जगहों पर लधु भारत बसते गए जैसे भिलाई,कोरबा, राउरकेला, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, टाटानगर, भोपाल, बोकारो, गुरुगांव ईत्यादि। यहॉं की कालोनी कल्चर ने मिलीजुली संस्कृति ने राष्ट्रवाद को पोषण किया। लोगों की जीवनशैली ने समृद्ध भारत की मिशाल पेश भी की। नगरीकरण में सांस्कृतिक समन्वय भाव था भले वहां ग्रामीण और एक जातिय एक धर्मीय गाँव वाली आत्मीय भाव न रहें हों।
इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में नगरी और कस्बाई संस्कृति पनपी लोगों की जरुरत पूर्ति हेतु महाजनी संस्कृति ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ लिऐ। कृषक समुदाय सूदखोर सेठ साहूकार महाजनों के कर्ज तले दब गए उनके उन्मूलन हेतु सहकारिता ग्रामीण बैंक की स्थापना हुई। प्रधानमंत्री इंदिरागंधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम चलाकर सेठ साहूकार द्वारा चलाए जा रहें देशी बैंकर्स का उन्मूलन किया। फलस्वरूप यहीं तबका अपने अस्तित्व रक्षा हेतु धर्म कर्म के सहारा लेकर नई पार्टी गठित कर अनेक सांस्कृतिक धार्मिक इकाईयां गठित कर संवैधानिक रुप से धर्मनिरपेक्ष देश और समाज को दिग्भ्रमित कर कट्टरवाद और चरमपंथ को बढ़ावा दिया। इन वर्गों के पास देश की अकूत संपदा,शिक्षा व अन्य प्रतिभाएं रही फलस्वरुप असल राष्ट्रवादियों के हाथों से सत्ता फिसलती ,भटकती हुई अंततः इन्ही धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथों चली गईं। फलस्वरुप हर तरफ धार्मिक उन्माद और जातिवाद का विकृत रुप दिखाई पड़ने लगी हैं।
ऐसा लगता हैं कि
भाषण और साहित्य सृजन से जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा क्योंकि ऐसा तो बुद्ध से लेकर डा अंबेडकर तक हजारों वर्षो से प्रभावी हस्तक्षेप होते हैं। अंध विश्वास, पाखंड आदि संस्कृति और परंपरा के नाम पर चलाएं जा रहें हैं उनके प्रतिरोध करने पर राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिए जा रहें हैं ।संगठित गिरोहों का आक्रमण और अन्य कार्यवही करने की भय हैं । जातिवाद और वर्णवाद का इनसे पोषण हो रहा हैं। ऐसे में इनके उन्मूलन हेतु कठोर एक्शन लेने वाली राजनैतिक ईच्छा शक्ति वाले कोई दल भी दूर दूर तक दिखाई नही दे रहें हैं। ऐसे में सवाल हैं किस दल और सत्ता पे यह दम हैं कि देश और समाज से जातिवाद और कट्टरपंथ का पूर्णतः उन्मूलन कर सकें? जबकि यह पता हैं कि राष्ट्र रुपी वृक्ष में यही तत्व दीमक हैं। जो भीतर से खोखले करते जा रहें हैं।
कटु सत्य हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद नगर निगमों और सरकारी आफिसों मे सफाई कर्मी के नाम पर भर्ती ब्राह्मण कर्मी से ओबीसी अधिकारी यहां तक दलित अधिकारी तक काम नहीं करा सकते। उनसे अन्य दफ्तरी काम लेते हैं या वें किसी किसी सफ़ाई कामगार जाति को मजदूरी देकर काम करवा लेते हैं।शासन _प्रशासन में घोर अघोषित जात _पात विद्यमान हैं, तो समझिए आम जन जीवन में क्या हालत होगी? कल ही मान सुप्रीम कोर्ट का कहना हैं कि जाति आधारित कामकाज ऑफिस से मंदिर तक चल रहा हैं ऐसे में जातिय उन्मूलन कैसे हो पाएगा?
वर्तमान में तो धर्म_ कर्म उफान पर हैं हिंदू _मुस्लिम के खेला मे अब ईसाई उद्वेलित हो रहें हैं। मणिपुर तो जल ही रहें हैं,कुकी मैताई का जातिय संघर्ष की चिंगारी बस्तर और सरगुजा तक फैलती जा रहीं हैं। यहाँ आदिवासी और ब्रिटिश काल में धर्मान्तरित ईसाईयों के बीच गाँव गाँव में साम्प्रदायिक तनाव आसानी से देखें जा सकतें हैं.घर वापसी जैसे कार्यक्रम और ईसाई मिशनरियों के मध्य आए दिन झड़पे की खबर मिलते ही रहतें हैं.
इसी छत्तीसगढ़ में 18 वीं सदी में गुरु घासीदास प्रवर्तित देश का प्रथम जातिविहीन "सतनाम पंथ" अपनी मनखे मनखे एक वाली समानता भाव नें मध्यकालीन भक्ति या निर्गुणवाद उपासना से आगे सामाजिक क्रांति और अनीश्वरवाद के कारण आरम्भ से ही बहिष्कृत हैं। कुछ पढ़े _लिखें लोग कुछेक दशकों से समझने लगें हैं पर जो ग्रह्यता आज़ादी के पूर्व थी अब लोग भूले -भटके प्रेम विवाह या जातिय बहिष्कार के कारण जीवन निर्वाह हेतु ही सतनाम पंथ को अंगीकार कर रहें हैं। यह सुखद तों हैं पर न्यूनतम होने से नक्कार खाने में विलीन होती तुती की तरह हो हैं.इस मानवता वादी स्वर की संरक्षण बेहद जरुरी हैं.
इधर जैन ,फारसी, वणिक वृति से अर्जित अकूत संपदा को बड़ी धार्मिक स्थल बनाकर शान समझ जनकल्याण से विमुख जान पड़ते हैं और यथास्थितिवाद के ही पोषक हैं। नव बौद्ध दलित हैं और केवल पेटबिकली से उबर नहीं पाए हैं कुछेक संपन्न वर्ग सवर्ण होने की ओर अग्रसर अपने वर्गों से ही दूरी बनाकर रहने मे भला समझते हैं । सिख भोजन भंडारा मे ही मगन ही नहीं उन्मत हैं,जबकि हरित क्रांति और 1 रुपए चावल से जनमानस भूख से उबर चुके हैं.उसे भोजन से अधिक मान सम्मान चाहिए.रैदास पंथी भी परस्पर जात पात,रैगर,जाटव, चमार, महार दुसाध, आदि में बिखरे हैं। अनु जाति और पौनी पसारी से जुड़े श्रमिक जातियां नाई धोबी
मेहतर गाड़ा घसिया केवट कोस्टा कुम्हार कलार लोहार सोनार आदि अपनी पुश्तैनी पेशा मे मग्न यथास्थिति के ही पोषक हैं।
आदिवासी के शिक्षित और युवा वर्ग ईसाई धर्मांतरण के इतर अपनी प्राचीन मान्यताओं के आधार पर गोंडी सरना धर्म की ओर बढ़ रहें हैं । छत्तीसगढ ही नही शैन शैन देश भर में धर्म और जात पात के नाम पर लामबंद हो रहें हैं , कट्टरपंथ बढ़ चूके।बहुसंख्यक शूद्र (ओबीसी) ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की युति ही हिंदू हैं जबकि हिन्दू धर्म सूचक शब्द नहीं स्थान बोधक हैं। इसलिए सनातन शब्दों का प्रचलन होने लगे हैं और यह शब्द भी बौद्ध धर्म से आयातित हैं। बहरहाल जैसे तैसे विगत एक दशक देश हिंदू राष्ट्र की ओर राजनैतिक शक्ति अर्जित कर बढ़ रहें हैं वर्तमान सत्तारूढ़ दल और उनके मातृ संस्थान धार्मिक संगठन द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और भव्यतम लोकार्पण हिंदू राष्ट्र के प्रतिकार्थ के जानबूझकर जाने समझें लगने लगे हैं।
कोरोना काल में धार्मिक स्थलों के पट बंद हो गए थे कथित सर्व शक्तिमान लगभग असहाय हो चूके थे.विज्ञान के अविष्कार टीका और औषधियों के द्वारा उनपर नियंत्रण पाए गए.पर उसके बाद फिर से ढोंग पाखंड युक्त बड़े बड़े आयोजन,समारोह बेतरतीब होने लगे.भगदड़ में कुचलें गये और उन्हें धर्म प्रेमी मोक्ष अधिकारिणी घोषित कर हास्यास्पद ढंग से सांत्वना प्रकट किए जा रहें हैं.धर्म के प्रति उत्सर्ग और बलिदान माने जा रहें हैं.
अल्पसंख्यकों में भी इसी तरह के अनुशरण होगा आखिर कही न कही सब एक दूसरे के प्रेरक - उत्प्रेरक हैं.
एक तरह से धर्म -कर्म में कट्टरपंथ और उन सब में अपनी अपनी लकीर खींचने की मनोवृति ही तीक्ष्ण मतभेद की जननी हैं. फलस्वरूप समरसता विखंडित हो रहीं हैं. और संविधान का धर्म (पंथ )निरपेक्ष पंथ राष्ट्रवाद तेजी से शक्तिहीन हो रहें हैं। पास -पड़ोस में धर्म आधारित राष्ट्र होने से यहां भी बहुसंख्यक लोग धार्मिक देश बनाने की झांसे में आते जा रहें हैं। उन्हें पता नहीं कि ऐसे में अखंडता कैसी क़ायम रहेगी.
जब देश दुनियां धर्म कर्म में लामबंद हैं चर्च मस्जिद मौलाना पादरी में उलझे हैं तब भारत भी मंदिर -मूर्ति, पंडे -पुजारी मे ही उलझा हैं तो कोई भला क्या कर सकता हैं? कुछेक देश नास्तिक या पंथ मत रहित हो मानववादी हो रहें हैं उनसे हम कब प्रेरित होंगे कह नहीं सकतें.
बाहरहाल जातिविहीन समुदाय होने की अवधारणा आरम्भ से हैं और उसे ही प्रज्ञावान संतों, गुरुओं नें आगे बढ़या पर राजतंत्र और उनके पोषक तत्वों नें जाति वर्ण नें शास्त्र और ईश्वरीय विधान घोषित कर इसे समाज और देश में थोप दिए हैं फकस्वरूप अमानवीय और बर्बर रुप आधुनिक ज्ञान विज्ञान के शिक्षा और समझ के बाद भी जनमानस में प्रायः देखने में मिलते हैं. भारतीय संविधान भी मौलिक अधिकार में धार्मिक स्वतंत्रता देकर और धर्म पंथ निरपेक्ष कह अघोषित रुप में यथास्थितिवाद के ही पोषक जैसा लगते हैं इसलिए इतने वर्षों बाद भी अपेक्षित परिणाम आना तो दूर अब जातिय और धार्मिक संगठन सत्ता प्राप्ति और उनके बाद उसे ही सुदृढ़ करने के कारक होते जा रहें हैं.
इस बहाने यदि प्राचीन संस्कृति को पुनरस्थापित करना हैं तब भली भांति उसे ही समझ ले.मज्झिम निकाय के अनुसार तथागत बुद्ध के समय कंबोज यवन क्षेत्र में दो ही वर्ग थे_अमीर और गरीब।यह व्यवस्था नैसर्गिक हैं और सदा रहेगा। कमोबेश मध्य देश दक्षिणापथ में आर्य_अनार्य से पृथक सत्यवंत लोगों में भी कोई जाति वर्ग व्यव्स्था नहीं थीं और वे लोग सत्य के अनुगामी स्वेत ध्वज वाहक प्रकृति उपासक समुदाय थे।
पर आर्य अनार्य संघर्ष में सत्यवन्त प्रजाति टीक नहीं पाई और इन दोनों संस्कृति में समाहित हों गई। पर यह बात रेखांकित करने योग्य हैं कि इसी भूमि में हजारों वर्ष के बाद जब जात_ पात, ऊंच _नीच का मकड़ जाल फ़ैला और इंसानियत खतरे में पड़ी तो समानता के लिऐ सतनाम पंथ का उद्भव हुआ।
यह भारतवर्ष का युगांतरकारी घटना हैं कि " मनखे मनखे एक" जैसे दिव्योक्ति के साथ सतनाम पंथ धर्म होने की ओर अग्रसर हैं।
भारत में जितने भी धर्म और पंथ हैं वें सभी कहीं न कहीं जाति वर्ग के रुप में विभाजित हैं। आधुनिक शिक्षा और लोकतंत्र गणराज्य हो जानें के बाद हर पांच वर्ष के चुनाव ने लोकतंत्र मजबूत जरुर किया पर वोट बैंक ने धर्म और जात पात को पूर्व के अपेक्षा और अधिक सुदृढ़ की हैं।
कुछेक विचारक मानते हैं कि यह जो दिख रहा हैं वह जातिय नहीं बल्कि वार्गिक चेतना हैं। 6 हजार जातियों में विभक्त विराट हिंदू धर्म के अंतर्गत संविधानिक रुप से समान्य, ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रुप में चिन्हाकित कर इनके ही हितार्थ योजनाएं चलाई जा रहीं हैं। फलस्वरुप यह वर्ग के अंतर्गत आने वाली जातियां अपने अपने समुदाय में वर्चस्व हेतु पहले से अधिक सचेत और सुदृढ़ होने लगे हैं।
कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अनुजाति वर्ग में क्रीमी लेयर लाकर अति पिछड़े समुदाय को लाभ दिया जाय जैसे कि ओबीसी वर्ग में हैं। इस पर देश भर में तीखी बहसे हुई और यह बात सामने आई कि यह वर्ग अब भी मुख्यधारा में नहीं हैं न ही समाजिक धार्मिक प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई तब एक वर्ग के विभिन्न जातियों को ही परस्पर प्रतिद्वंदी बनाना हैं। यह बातें व तथ्य समझी गई और मामला विचाराधीन हुईं हैं पर ख़त्म हुई नहीं।
. मान न्यायालय की टिप्पणी पर महीन दृष्टि समाजिक सरोकार से लगाई जा रहीं हैं कि इनका दूरगामी परिणाम और प्रभाव क्या होगा? क्या चार वर्ग फिर से जातियों तक चली जाएगी और देश में जातिय गणना की उठती मांग से क्या दशा निर्मित होंगी इन पर विचार और परिचर्चाये की जा सकती हैं। यह मामला थमी ही नही कि एक ध्यानाकर्षण टिप्पणी अभी- अभी सुप्रीम कोर्ट से आई कि जेल में निरुद्ध अपराधियों के जाति देखकर कार्यों की बटवारा है । यह तो अपराधियों के मामले हैं सोचो जो बाहर विभिन्न शासकीय अशासकीय निगमों मंडलों में भृत्य ,सफ़ाई कर्मचारी के रुप में उच्च जाति के लोग पदस्थ हैं उन्हें उनके मूल कार्य न लेकर अन्य दफ्तरी कार्य लिऐ जाते हैं। मतलब जन्मना जातिय श्रेष्ठता/ निम्नता बोध का कार्य शासन- प्रशासन में ही चल रहा हैं।
ऐसे में छतीसगढ़ की भूमि सें 18 वीं सदी में समानता पर आधारित जातिविहीन सतनाम पंथ की दर्शन और बातें " मनखे मनखे एक" कितना प्रासंगिक हैं, इसे समझकर दिग्भ्रमित लोगों को समझाये जा सकते हैं।
हालांकि इस महादेश में ऐसी चेतना का प्रचार- प्रसार स्कूल कालेज के पाठ्यक्रमों और प्रज्ञावान प्रवाचकों और शासन प्रशासन की दृढ़ता से ही संभाव्य हैं पर वोट बैंक और उनसे मिलती सत्ता राष्ट्रवाद और अखंडता का नारा या जुमला भर लगा सकती हैं. यदि ऐसे ही और एक दूसरे से होड़ और श्रेष्ठता निकृष्टता की बातें चलती रहेगी तों आगे चलकर बहुत ही घातक परिणाम भुगतने पड़ सकतें हैं.उनकी अंदेशा और आहटें सर्वत्र / सुनाई दिखाई पड़ रहें हैं.
जय भारत
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डॉ अनिल कुमार भतपहारी/ 9617777514
ऊँजियार सदन, सेंट जोसफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001
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