Saturday, February 22, 2025

लोक नाट्य एवं नाचा गम्मत की दुर्गति

#anilbhattcg 

प्रदेश की समृद्ध नाचा गम्मत और नाट्यकला की दुर्गति 

छत्तीसगढ़ में अभिनय कला की समृद्ध परम्परा रहीं हैं.
संभवतः देश की सबसे प्राचीन नाट्य शाला सीता बेंगरा सरगुजा हमारे प्रदेश में हैं.जिसे कलात्मक ढंग से बनाये गए है. देखा जाय तो प्रत्येक बड़े ग्रामों में बड़ा चौरा होते थे जिस पर चाँदनी लगाकर ओपन थिएटर या opera hause जैसा रात -रात भर मनोरंजक और ज्ञान वर्धक  नृत्य गीत नाट्य अभिनय युक्त नाचा कार्यक्रम होते थे. हमारे खरीखा दाड़ विशाल एंटीबायटिक मैदान हैं जहाँ कबड्डी खोखो और करमा पंथी  सुआ जैसे सामूहिक नृत्य गान होते मड़ाई  जगाते रहस बेड़ा सजाते हैं.इस तरह से देखें तो हर गाँव में नाचा गम्मत के रूप में मनोरंजक और प्रेरक पंडवानी भरथरी आल्हा रसालू, बांस गीतों अहिमन,केवला,कुंवर अछरिया, लोरीकचंदा, बड़ी बड़ी कथानक हैं  रात रात भर चौदस पुन्नी में मंगल भजन साधु अखड़ा चौका आरती थे जिससे लोक जीवन  तमाम आभाव और साधन विहीन हो सुखी एवं समरिद्ध थे .लगभग 50 वर्ष पूर्व सुदूर ग्राम्य अंचल में हमनें ढोला मारु,शीत बसंत,दौना मांजर,चंदैनी से लेकर नाचा गम्मत में गुरु बटवारा,परीक्षा,अनेक प्रेम और सत्यकथा पर आधारित कौमिक कथाओ का मंचन दानी दरुवान, जेठू पकला, हीरा राजू चम्पा बरसन मते लखन कनकी,रायखेड़ा, फुडहर नाचा साज, चंदैनी गोंदा कारी चरणदास चोर,  एवं पिताश्री सतलोकी सुकाल दास भतपहरी के नवरंग नाट्य कला मंच से हाय रे नशा,राह के फूल,गवाईहा,मोला गुरु बनई लेते,चांदी के पहाड़ जैसे देखें और खेलते बड़े हुए हैं.1990 के  बाद TV वीडिओ वीसीआर,CD आने गाँव में नाचा / लोक मंच लगभग महगी बजट और अनेक तरह के झंझट के चलते खत्म हो गए.  छत्तीसगढी गीतों से सजी आर्केस्ट्रा लोक मंच पर चला पर tv ,video ki अश्लीलता  के चलते लोकमंच आर्केस्ट्रा में  द्वी अर्थी गीतों और फुहड़ता चलने लगा इसलिए भी राम -कृष्ण लीला,रामायण,भागवत कथाएँ जो उप बिहार से आयातीत  हैं इन सबका चलन बढ़ गया. सतनामयन कबीर सत्संग प्रवचन  भी चलने लगा. भले धर्म कर्म हो न हो पर इन्ही में अब मनोरंजन,भोग भंडारा आदि होने लगा और उत्सव धर्मी लोग इनमें उन्मत्त भी हो गए.इस तरह यहॉं की इस विशुद्ध लोकरंजन नाट्य गम्मत कलाएं के धार्मिक आयोजन नें जगह लें लिए हैं.आज सुविधाएं और आर्थिक समृद्धि के बाद भी निरुत्साह और व्यक्ति एकान्तिक तनाव ग्रस्त हैं.राजनीति द्वेष भाव और धर्म कर्म की प्रदर्शन में होड़ और प्रतिस्पर्धा नें तनाव ग्रस्त और दुःखी कर दिए हैं.सबकी होठों से निश्छल हसीं गायब हैं चंद शातिरों की कुटील मुस्कान और अट्टहास नें छीन लिए हैं.क्या इसी तरह सुखी एवं समृद्ध समाज और राष्ट्र बना पाएंगे?
.      देखें तो दुःख में कटटल के हसने हसाने का मौका देने वाले नाचा गम्मत और नाटक लगभग बिदा हो गए हैं.केवल शासकीय आयोजन में एक आधा घंटे के लिए प्रस्तुति रह गए और वे भी अनुदान के भरोसे से चल रहें हैं.कोई आयोजक नहीं और न ही कोई दर्शक श्रोता रह गए.मोबाईल नें सार्वजनिक प्रदर्शन कला को बुरी तरह खत्म कर दिए हैं. शासन  प्रशासन के साथ -साथ आयोजको सभा समितियों  और हमारे कलावंत बुद्धिजीवियों,रंगकर्मियों, लोक कलाकारों को प्रदेश की समृद्ध नाचा गम्मत,नाट्य रंगमंच को बचाने सार्थक पहल करना चाहिए.

डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, February 15, 2025

जातिवाद संप्रदाय वाद से गुजरता भारतीय समाज

जातिवाद और  साम्प्रदायिक कट्टरपंथ से होकर गुजरता  भारतीय समाज

वर्तमान समय सर्वाधिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। भले देश में  डेढ़ दशक से अधिक पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं लेकिन बहुत तेजी से गैर हिन्दू जानता असुरक्षित महसूस कर रहें हैं। 
आज़ादी के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े पार्टी और विचारधारा की सत्ता रही । उस समय विजनरी नेतृत्व थे फलस्वरूप देश के नव निर्माण में आधारभूत औद्योगिक इकाईयों की स्थापना आधुनिक तीर्थ के रुप में हुईं और उन जगहों पर लधु भारत बसते गए जैसे भिलाई,कोरबा, राउरकेला, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, टाटानगर, भोपाल, बोकारो, गुरुगांव ईत्यादि। यहॉं की कालोनी कल्चर ने मिलीजुली संस्कृति ने राष्ट्रवाद को पोषण किया।  लोगों की जीवनशैली ने समृद्ध भारत की मिशाल पेश भी की।  नगरीकरण में सांस्कृतिक समन्वय भाव था भले वहां ग्रामीण और एक जातिय एक धर्मीय गाँव वाली आत्मीय भाव न रहें हों। 
      
 इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में नगरी और कस्बाई संस्कृति पनपी लोगों की जरुरत पूर्ति हेतु महाजनी संस्कृति ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ लिऐ। कृषक समुदाय सूदखोर सेठ साहूकार महाजनों के कर्ज तले दब गए उनके उन्मूलन हेतु सहकारिता ग्रामीण बैंक की स्थापना हुई। प्रधानमंत्री इंदिरागंधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम चलाकर सेठ साहूकार द्वारा चलाए जा रहें देशी बैंकर्स का उन्मूलन किया। फलस्वरूप यहीं तबका अपने अस्तित्व रक्षा हेतु धर्म कर्म के सहारा लेकर नई पार्टी गठित कर अनेक सांस्कृतिक धार्मिक इकाईयां गठित कर संवैधानिक रुप से धर्मनिरपेक्ष देश और समाज को दिग्भ्रमित कर कट्टरवाद और चरमपंथ को बढ़ावा दिया। इन वर्गों के पास देश की अकूत संपदा,शिक्षा व अन्य प्रतिभाएं रही फलस्वरुप असल राष्ट्रवादियों के हाथों से सत्ता फिसलती ,भटकती हुई अंततः इन्ही धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथों चली गईं। फलस्वरुप हर तरफ धार्मिक उन्माद और जातिवाद का विकृत रुप दिखाई पड़ने लगी हैं।
ऐसा लगता हैं कि 
भाषण और साहित्य सृजन से जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा क्योंकि ऐसा तो बुद्ध से लेकर डा अंबेडकर तक हजारों वर्षो से प्रभावी हस्तक्षेप होते हैं। अंध विश्वास, पाखंड आदि संस्कृति और परंपरा के नाम पर चलाएं जा रहें हैं उनके प्रतिरोध  करने पर राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिए जा रहें हैं ।संगठित गिरोहों का आक्रमण और अन्य कार्यवही करने की भय हैं । जातिवाद और वर्णवाद का इनसे पोषण हो रहा हैं। ऐसे में इनके उन्मूलन हेतु कठोर एक्शन लेने वाली राजनैतिक ईच्छा शक्ति वाले कोई दल भी दूर दूर तक दिखाई नही दे रहें हैं। ऐसे में सवाल हैं किस दल और सत्ता पे यह दम हैं कि देश और समाज से जातिवाद और कट्टरपंथ का पूर्णतः उन्मूलन कर सकें? जबकि यह पता हैं कि राष्ट्र रुपी वृक्ष में यही तत्व दीमक हैं। जो भीतर से खोखले करते जा रहें हैं।
     कटु सत्य हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद नगर निगमों और सरकारी आफिसों मे सफाई कर्मी के नाम पर भर्ती ब्राह्मण कर्मी से ओबीसी अधिकारी यहां तक दलित अधिकारी तक काम नहीं करा सकते। उनसे अन्य दफ्तरी काम लेते हैं या वें किसी किसी सफ़ाई कामगार जाति को मजदूरी देकर काम करवा लेते हैं।शासन _प्रशासन में घोर अघोषित जात _पात विद्यमान हैं, तो समझिए आम जन जीवन में क्या हालत होगी? कल ही मान सुप्रीम कोर्ट का कहना हैं कि जाति आधारित कामकाज ऑफिस से मंदिर तक चल रहा हैं ऐसे में जातिय उन्मूलन कैसे हो पाएगा?
 वर्तमान में तो धर्म_ कर्म उफान पर हैं हिंदू _मुस्लिम के खेला मे अब ईसाई उद्वेलित हो रहें हैं। मणिपुर तो जल ही रहें हैं,कुकी मैताई का जातिय संघर्ष की चिंगारी बस्तर और सरगुजा तक फैलती जा रहीं हैं। यहाँ आदिवासी और ब्रिटिश काल में धर्मान्तरित ईसाईयों के बीच गाँव गाँव में साम्प्रदायिक तनाव आसानी से देखें जा सकतें हैं.घर वापसी जैसे कार्यक्रम और ईसाई मिशनरियों के मध्य आए दिन झड़पे की खबर मिलते ही रहतें हैं.

इसी छत्तीसगढ़ में 18 वीं सदी में गुरु घासीदास प्रवर्तित देश का प्रथम जातिविहीन "सतनाम पंथ" अपनी  मनखे मनखे एक वाली समानता भाव नें मध्यकालीन भक्ति या निर्गुणवाद उपासना से आगे सामाजिक क्रांति और अनीश्वरवाद के कारण आरम्भ से ही  बहिष्कृत हैं। कुछ पढ़े _लिखें लोग कुछेक दशकों से समझने लगें हैं पर जो ग्रह्यता आज़ादी के पूर्व थी अब लोग भूले -भटके प्रेम विवाह या जातिय बहिष्कार के कारण जीवन निर्वाह हेतु ही सतनाम पंथ को अंगीकार कर रहें हैं। यह सुखद तों हैं पर न्यूनतम होने से नक्कार खाने में विलीन होती तुती की तरह  हो हैं.इस  मानवता वादी स्वर की संरक्षण बेहद जरुरी हैं.
    इधर जैन ,फारसी, वणिक वृति से अर्जित अकूत संपदा को बड़ी धार्मिक स्थल बनाकर शान समझ जनकल्याण से विमुख जान पड़ते हैं और यथास्थितिवाद के ही पोषक हैं। नव बौद्ध दलित हैं और केवल पेटबिकली से उबर नहीं पाए हैं कुछेक संपन्न वर्ग सवर्ण होने की ओर अग्रसर अपने वर्गों से ही दूरी बनाकर रहने मे भला समझते हैं । सिख भोजन भंडारा मे ही मगन ही नहीं  उन्मत हैं,जबकि हरित क्रांति और 1 रुपए चावल से जनमानस भूख से उबर चुके हैं.उसे भोजन से अधिक मान सम्मान चाहिए.रैदास पंथी  भी परस्पर जात पात,रैगर,जाटव, चमार, महार दुसाध, आदि में बिखरे हैं। अनु जाति और पौनी पसारी से जुड़े श्रमिक जातियां नाई धोबी 
मेहतर गाड़ा घसिया केवट कोस्टा कुम्हार कलार लोहार सोनार आदि अपनी पुश्तैनी पेशा मे मग्न  यथास्थिति के ही पोषक हैं।
   आदिवासी के शिक्षित और युवा वर्ग ईसाई धर्मांतरण के इतर अपनी प्राचीन मान्यताओं के आधार पर गोंडी सरना धर्म की ओर बढ़ रहें हैं । छत्तीसगढ ही नही शैन शैन देश भर में धर्म और जात पात के नाम पर लामबंद हो रहें हैं , कट्टरपंथ बढ़ चूके।बहुसंख्यक  शूद्र (ओबीसी) ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की युति ही हिंदू हैं जबकि हिन्दू धर्म सूचक शब्द नहीं स्थान बोधक हैं। इसलिए सनातन शब्दों का प्रचलन होने लगे हैं और यह शब्द भी बौद्ध धर्म से आयातित हैं। बहरहाल जैसे तैसे विगत एक दशक देश हिंदू राष्ट्र की ओर राजनैतिक शक्ति अर्जित कर बढ़ रहें हैं वर्तमान सत्तारूढ़ दल और उनके मातृ संस्थान धार्मिक संगठन द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और भव्यतम लोकार्पण हिंदू राष्ट्र के प्रतिकार्थ के जानबूझकर जाने समझें लगने लगे हैं।
 कोरोना काल में धार्मिक स्थलों के पट बंद हो गए थे कथित सर्व शक्तिमान लगभग असहाय हो चूके थे.विज्ञान के अविष्कार टीका  और औषधियों के द्वारा उनपर नियंत्रण पाए गए.पर उसके बाद फिर से ढोंग पाखंड युक्त बड़े बड़े आयोजन,समारोह बेतरतीब होने लगे.भगदड़ में कुचलें गये और उन्हें धर्म प्रेमी मोक्ष अधिकारिणी घोषित कर हास्यास्पद ढंग से सांत्वना प्रकट किए जा रहें हैं.धर्म के प्रति उत्सर्ग और बलिदान माने जा रहें हैं.
अल्पसंख्यकों में भी इसी तरह के अनुशरण होगा आखिर कही न कही सब एक दूसरे के प्रेरक - उत्प्रेरक  हैं. 
एक तरह से धर्म -कर्म में कट्टरपंथ और उन सब में अपनी अपनी लकीर खींचने की मनोवृति  ही तीक्ष्ण मतभेद की जननी हैं. फलस्वरूप  समरसता विखंडित हो रहीं हैं. और संविधान का धर्म (पंथ )निरपेक्ष  पंथ राष्ट्रवाद  तेजी से शक्तिहीन हो रहें हैं। पास -पड़ोस में धर्म आधारित राष्ट्र होने से यहां भी बहुसंख्यक लोग धार्मिक देश बनाने की झांसे में आते जा रहें हैं। उन्हें पता नहीं कि ऐसे में अखंडता कैसी क़ायम रहेगी.
  जब देश दुनियां धर्म कर्म में लामबंद हैं चर्च मस्जिद मौलाना पादरी में उलझे हैं तब  भारत भी मंदिर -मूर्ति, पंडे -पुजारी मे ही उलझा हैं तो कोई भला क्या कर सकता हैं? कुछेक देश नास्तिक या पंथ मत रहित हो मानववादी हो रहें हैं उनसे हम कब प्रेरित होंगे कह नहीं सकतें.
   
 बाहरहाल जातिविहीन समुदाय  होने की अवधारणा आरम्भ से हैं और उसे ही प्रज्ञावान संतों, गुरुओं नें आगे बढ़या पर राजतंत्र और उनके पोषक तत्वों नें जाति वर्ण नें शास्त्र और ईश्वरीय विधान घोषित कर इसे समाज और देश में थोप दिए हैं फकस्वरूप अमानवीय और बर्बर रुप आधुनिक ज्ञान विज्ञान के शिक्षा और समझ के बाद भी जनमानस में प्रायः देखने में मिलते हैं. भारतीय संविधान भी मौलिक अधिकार में धार्मिक स्वतंत्रता देकर और धर्म पंथ निरपेक्ष कह अघोषित रुप में यथास्थितिवाद के ही पोषक जैसा लगते हैं इसलिए इतने वर्षों बाद भी अपेक्षित परिणाम आना तो दूर अब जातिय और धार्मिक संगठन सत्ता प्राप्ति और उनके बाद उसे ही सुदृढ़ करने के कारक होते जा रहें हैं.

   इस बहाने यदि प्राचीन संस्कृति को पुनरस्थापित करना हैं तब भली भांति उसे ही समझ ले.मज्झिम निकाय के अनुसार तथागत बुद्ध के समय कंबोज यवन क्षेत्र में दो ही वर्ग थे_अमीर और गरीब।यह व्यवस्था नैसर्गिक हैं और सदा रहेगा। कमोबेश मध्य देश दक्षिणापथ में आर्य_अनार्य  से पृथक सत्यवंत लोगों में भी कोई जाति वर्ग व्यव्स्था नहीं थीं और वे लोग सत्य के अनुगामी स्वेत ध्वज वाहक प्रकृति उपासक समुदाय थे।
        पर आर्य अनार्य संघर्ष में सत्यवन्त प्रजाति टीक नहीं पाई और इन दोनों संस्कृति में समाहित हों गई। पर यह बात रेखांकित करने योग्य हैं कि इसी भूमि में हजारों वर्ष के बाद जब जात_ पात, ऊंच _नीच का मकड़ जाल फ़ैला और इंसानियत खतरे में पड़ी तो समानता के लिऐ सतनाम पंथ का उद्भव हुआ।
   यह भारतवर्ष का युगांतरकारी घटना हैं कि " मनखे मनखे एक" जैसे दिव्योक्ति के साथ सतनाम पंथ धर्म होने की ओर अग्रसर हैं।
  भारत में जितने भी धर्म और पंथ हैं वें सभी कहीं न कहीं जाति वर्ग के रुप में विभाजित हैं। आधुनिक शिक्षा और लोकतंत्र गणराज्य हो जानें के बाद हर पांच वर्ष के चुनाव ने लोकतंत्र मजबूत जरुर किया पर वोट बैंक ने धर्म और जात पात को पूर्व के अपेक्षा और अधिक सुदृढ़ की हैं।
कुछेक विचारक मानते हैं कि यह जो दिख रहा हैं वह जातिय नहीं बल्कि वार्गिक चेतना हैं। 6 हजार जातियों में विभक्त विराट हिंदू धर्म के अंतर्गत संविधानिक रुप से समान्य, ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रुप में चिन्हाकित कर इनके ही हितार्थ योजनाएं चलाई जा रहीं हैं। फलस्वरुप यह वर्ग के अंतर्गत आने वाली जातियां अपने अपने समुदाय में वर्चस्व हेतु पहले से अधिक सचेत और सुदृढ़ होने लगे हैं।
    कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अनुजाति वर्ग में क्रीमी लेयर लाकर अति पिछड़े समुदाय को लाभ दिया जाय जैसे कि ओबीसी वर्ग में हैं। इस पर देश भर में तीखी बहसे हुई और यह बात सामने आई कि यह वर्ग अब भी मुख्यधारा में नहीं हैं न ही समाजिक धार्मिक प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई तब एक वर्ग के विभिन्न जातियों को ही परस्पर प्रतिद्वंदी बनाना हैं। यह बातें व तथ्य समझी गई और मामला विचाराधीन हुईं हैं पर ख़त्म हुई नहीं।

.   मान न्यायालय की टिप्पणी पर महीन दृष्टि समाजिक सरोकार से लगाई जा रहीं हैं कि इनका दूरगामी परिणाम और प्रभाव क्या होगा? क्या चार वर्ग फिर से जातियों तक चली जाएगी और देश में जातिय गणना की उठती मांग से क्या दशा निर्मित होंगी इन पर विचार और परिचर्चाये की  जा सकती हैं। यह मामला थमी ही नही कि एक ध्यानाकर्षण टिप्पणी अभी- अभी सुप्रीम कोर्ट से आई कि जेल में निरुद्ध अपराधियों के जाति देखकर कार्यों की बटवारा है । यह तो अपराधियों के मामले हैं सोचो जो बाहर विभिन्न शासकीय अशासकीय निगमों मंडलों में  भृत्य ,सफ़ाई कर्मचारी के रुप में उच्च जाति के लोग पदस्थ हैं उन्हें उनके मूल कार्य न लेकर अन्य दफ्तरी कार्य लिऐ जाते हैं। मतलब जन्मना जातिय श्रेष्ठता/ निम्नता बोध का कार्य शासन- प्रशासन में ही चल  रहा हैं।
 ऐसे में  छतीसगढ़ की भूमि सें 18 वीं सदी में समानता पर आधारित जातिविहीन सतनाम पंथ की दर्शन और बातें " मनखे मनखे एक" कितना प्रासंगिक हैं, इसे समझकर दिग्भ्रमित लोगों को समझाये  जा सकते हैं। 
 हालांकि इस महादेश में ऐसी चेतना का प्रचार- प्रसार स्कूल कालेज के पाठ्यक्रमों और प्रज्ञावान  प्रवाचकों और शासन प्रशासन की दृढ़ता से ही संभाव्य हैं पर वोट बैंक और उनसे मिलती सत्ता राष्ट्रवाद और अखंडता का नारा या जुमला भर लगा सकती हैं. यदि ऐसे ही और एक दूसरे से होड़ और श्रेष्ठता निकृष्टता की बातें चलती रहेगी तों आगे चलकर बहुत ही घातक परिणाम भुगतने पड़ सकतें हैं.उनकी अंदेशा  और आहटें सर्वत्र  / सुनाई दिखाई पड़ रहें हैं.

जय भारत 
   
    

  डॉ अनिल कुमार भतपहारी/ 9617777514

ऊँजियार सदन, सेंट जोसफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001

Monday, February 10, 2025

जोग महानदी तट पर आबाद मानव सभ्यता एवं उनके अनुष्ठान

जोंक महानदी के तट पर आबाद मानव सभ्यता एवं संस्कृति का केंद्र 

  नदियां मानव सभ्यता की जननी हैं या फिर हम ऐसा भी कह सकते हैं कि नदियों के तट पर ही मानव प्रजातियों का उद्गम और विकास हुआ हैं। आरम्भ से लेकर अब तक इनकी तट पर ही मानव बस्तियां पाई गई हैं। उनके घर खेती और व्यवसाय  स्थल रहा है और सदियों तक रहेगा। वें नदियों के गोद में ही अनेक उपलब्धियों को अर्जित करते यहां तक की यात्राएं तय कर सका हैं।
    हालांकि मानव निवास स्थल के अवशेष गुफाएं  आदि हमें पर्वत की ऊंचाई में भी मिलती है लेकिन वह सुरक्षागत कारणों से है। असल में जलश्रोत जहां रहा, वहा मानव की बसाहटे हुईं। भले निस्तार हेतु पानी उपर तक ले गए
पर मानव समुदाय  पर्वत के नीचे या समतल जगहों पर स्थित कुंड या प्रवाहित जलधार के पास आए।
  प्रायः पर्वत ही नदियों के जनक हैं पर समतल मैदान में भी पाताल फोड़ कुआं और जल स्त्रोत मिलती हैं ,जिसे छत्तीसगढ़ी मे "चितावर "और "चुहरी "कहते हैं वहा से भी नदियों का उद्गम होते हैं। इन्हें लेकर रचे गए लोकगीत दर्शनीय है  _
 
 चितावर में राम चिरई बोले 
तोला कोन बन में खोजंव 
मैना मंजूर जोही मोला तार लेबे रे दोस ...

 चितावर/ चुहरी के आसपास जरुर  पहाड़, पर्वत, पठार पाए जाते हैं  जिसके ऊंचाई या तराई भाग में जलकुंड होते हैं ।जहां से जल प्रवाहित हों नदी का स्वरुप ग्रहण कर लेती हैं। यह जल स्रोत सदनीरा या मौसमी भी होते हैं।
   भारत वर्ष में कुंड पोखर सरोवर जलस्रोत वंदनीय हैं तो वहा से प्रवाहित होती नदियां पूज्यनीय हैं। हमारे यहां गंगा, यमुना, नर्मदा चंबल ,बेतवा,गोदावरी, कावेरी महानदी, इंद्रावती ,सतलज, व्यास, रावी, गोमती ,तीस्ता ,सोन भद्र ,ब्रम्हपुत्र  आदि के तट पर ही नगरी और उन्नत सभ्यता का विकास हुआ हैं। देश के दो महत्वपूर्ण प्रदेश उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा कही जाने वाली महानदी प्राचीन काल में चित्रोत्पला गंगा के नाम से जानी जाती रही हैं और गंगा जैसी ही पावन मोक्षदायनी मानी गई हैं। क्योंकि इनकी उद्गम सिहावा पर्वत छत्तीसगढ़ से होकर बंगाल की खाड़ी में चिल्का झील बनाती ठीक गंगा की तरह हिमालय पर्वत से निकल कर सुंदरवन मे झील बनाती बंगाल की खाड़ी सागर में समाहित हो जाती हैं।
      अपने तट पर अनेक धार्मिक वाणिज्यिक और प्रदेश की राजधानी बनाती हुई लाखों हैक्टर कृषि भूमि को सिंचित करती करोड़ों जन जीवन के लिए अन्नोत्पादन कराती उनके पेयजल की भी आपूर्ति कराती हैं। इसलिए मानव समाज के लिए ये नदियां वरदान हैं।
  महानदी की सहायक नदी जोक नदी भी मानव सभ्यता के केंद्र रहें हैं। उड़ीसा सरकार द्वारा अनेक तरह से अनुसंधान इस संदर्भ में किए गए हैं और कार्य अनवरत जारी है हैं। लगभग 25000 साल पहले इनकी तट पर मानव इतिहास के अवशेष मिलती हैं। 
    उड़ीसा के नुआपाड़ा जिले के सुना बेरा पठार से निकलने वाली और महासमुंद जिले के बागबाहरा के छाती गांव में छत्तीसगढ़ प्रवेश करने वाली नदी के किनारे किए गए अन्वेषण में मानव इतिहास के पहले आरंभिक औजार निर्माता से लेकर आधुनिक काल तक के साक्षी मिलेंगे।  प्रागतिहैसिक औजारों की बड़ी संख्या में खोज से पता चलता है कि इस घाटी में 25000 साल पहले आदिमानव निवास करते थे।
 छत्तीसगढ़ सरकार के संस्कृति और पुरातत्व निदेशालय की टीम द्वारा किए गए सर्वेक्षण का नेतृत्व करने वाले गंगाधर मेहर विश्वविद्यालय संबलपुर के इतिहास स्कूल के प्रमुख डॉक्टर अतुल कुमार प्रधान ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया कि जोंक नदी घाटी छत्तीसगढ़ में मानव इतिहास का उद्गम स्थल है। 
प्रागैतिहासिक औजारों में हजारों वर्षों के फ्लैग ब्लैक पॉइंट और कर शामिल है सेंड भट खुरमुरी डूंगरी पाली रीवा नीलेश्वर उधर लाल में परेशानी डूमरपाली बालदी डीह लीलेसर चंदन थरगांव , कुशगढ़ , नितोरा से भी बड़ी संख्या में प्रागैतिहासिक स्थल खोजे गए हैं यह औजार 25000 से लेकर के  6000 साल पुराने जान पड़ते हैं ।अन्वेषण से कसडोल के अमोंदी  ग्राम में एक बड़ी प्रारंभिक ऐतिहासिक बस्ती भी प्राप्त हुई है । कुछ प्रारंभिक ऐतिहासिक स्थल में बर्तनों के टुकड़े, कटोरे ,बेसिन, भंडारण  जार, मोती काठी के बर्तन और भौतिक एवम संस्कृतिक वस्तुएं मिली है।
   जोंक नदी की सहायक नदियों में भंडार, कोलार ,मैच का चिराग बाग भैया भूसा का में लहर जैसे की छोटी बड़ी सहायक नदियां इसमें जाकर मिलती है। यह नदी उत्तर दिशा में बहती है और कल 215 किलोमीटर क्षेत्र को कर करती है छत्तीसगढ़ उड़ीसा के बीच एक अंतर राज्य सीमा बनाती है यह नदी कहानी छोटी बड़ी पर्वत श्रृंखलाओं से होकर गुजरती है  नुआपाडा पहाड़ी श्रृंखला के एक संकीर्ण चट्टानी चैनल से बहने के बाद श्री नारायण के पास महानदी में समागम हो जाती है  गिरौदपुरी सोनाखान रेंज की पहाड़ियों में स्वर्ण भंडारण प्राप्त हुई है। इस क्षेत्र से नदी गुजरती है और मिट्टी और चट्टानों के कटाव के द्वारा अपने साथ सोने के बारीक कारण प्रवाहित करके महानदी की रेत में प्रवाहित करके ले जाती है। इसलिए महानदी की रेत में गिरौदपुरी   शिवरीनारायण से लेकर से लेकर के  हीराकूद बांध तक नदी के दोनों और सोनझरिया जनजाति निवास करती हैं। जो महानदी की रेत से पारंपरिक रुप से सदियों से स्वर्ण कण निकालते आ रहें हैं। सतनाम  संस्कृति में जोंक को  जोगनदी कहीं जाती है क्योंकि इनकी पावन तट पर गुरु घासीदास ने जोग यानि तपस्या किया एवं सतनाम पंथ का प्रवर्तन किया।
   जोग नदी में हाथी पथरा घाट में फागुन पंचमी से सप्तमी स्नान कर पुण्य अर्जित करने की सांस्कृतिक अनुष्ठान है। कहते है कि सोनाखान राजा के मतवाला हाथी को गुरु घासीदास ने अपने तपबल और जोग विद्या से पत्थर के बना दिए यह आकृति जनमानस में श्रद्धा के केंद्र हैं।
सुरम्य तट और स्वच्छ जलराशि श्रद्धालुओं और पर्यटकों के मन को पवित्र और आकर्षित करती है  फलस्वरूप लाखों लोग स्नान हेतु एकत्र होते है और बारहों माह दर्शन स्नान हेतु आते रहते हैं।
महानदी और जोगनदी के मध्य ही सतनामियों की बसाहट है जो कृषक और मेहनती कौम है। कहते है यह परिक्षेत्र प्राचीन सत्यवंतो का स्थल है इतिहास में जो सतवहन वंश और सहज्यानी बौद्ध लोग है वर्तमान सतनामी समाज हैं। जिसमे प्राचीन मान्यताएं और उनकी भाषा व्रत त्यौहार जिसमें प्रकृति पूजन,धनाई माता पूजन, हरेली, पोला,सुरहुत्ति  होली  आदि निर्बाध चला आ रहा : 

छत्तीसगढ महतारी के करधन 
जिसमे भरा हैं अपार स्वर्ण कण 

  यह स्वर्ण कण जोंक  नदी ही प्रवाहित कर महानदी में मिलती है इसलिए इस नदी का ऐतिहासिक आर्थिक सामाजिक धार्मिक रूप से  मध्य भारत में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान हैं । यह उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सीमारेखा और जीवनरेखा भी हैं।

 यदि मानव बसाहट पहाड़ पर्वत पठार पर हो तो भी जल के लिए जलकुंड या  वहा से प्रवाहित जलधार क्षेत्र नदी के तट पर उनको आना ही होता है!  थे विश्वकी विश्व की अनेक बड़ी सभ्यताओं का विकास या बड़ी नगरों का विकास नदियों के तट पर ही हुआ है चाहे वह नील नदी हो अमेजॉन हो या ब्रह्मपुत्र हो गंगा हो गोदावरी हो या महानदी हो इन सभी नदियों में हमें मानव सभ्यता के विकास का चिन्ह दिखाई पड़ता है। 
    छत्तीसगढ़ राज्य के महासमुंद जिले और रायपुर जिले से होकरबहती हुई बहती हुई सोना बेड़ा पत्थर से शुरू होती है और
जोक नदी का प्रवाह क्षेत्र 2480 वर्ग मीटर है जिसमें विविध प्रकार के वनस्पतियां के नदी पर्वत वन पर्वत इत्यादि और विभिन्न पशु पक्षी आबाद है यह नदी दर्शनी और धार्मिक दृष्टिकोण से भी का तीसरा महत्व है गिरोधपुरी के समय यहां इसके तट पर लाखों लोग स्नान कर दर्शन कर पुण्य अर्जित करते है। अन्य नदियों की तरह इनपर भी अनेक काव्य और प्रेरक साहित्य रचे गए हो जो उनकी विशेषताओं को  प्रकट करती हैं।

" जोगनदी पलाशिनी "

जोगनदी पलाशिनी 
अमृत जल वाहिनी
है बहु व्याधि हरिणी 
मन की विकार नाशिनी 
इनकी तट पर पावन तपोभूमि 
गिरौदपुरी सत्घाम है विराजती 
धन्य वन प्रांतर हुआ महिमामय 
घासीगुरु के तपबल से गरिमामय 
 लाखो नर- नारी कर स्नान 
अर्जित करते  पुण्य कर आचमन 
प्रकृति से पल भर होते मिलाप 
 मिटते दु:ख सब क्लेश संताप
जीवन प्रवाह में द्वीप सा कठोर भार 
विगलित करते सत्संग जड़ता विकार 
जल मध्ये प्रकृतस्थ हस्ति प्रतिमा
मन मैगल प्रक्षालित चमके चंद्र पूर्णिमा 
यहां केवल मेल मिलाप नही 
हाट बाजार व्रत उपवास नही 
होते यहां सभी जन सत साधक 
 बनकर आते वे सबके लायक 
 संत सेवक अरु सत्यानुरागी 
संकल्पित मन में बनु सतगामी 
पंगत संगत का अनुठा महा पर्व 
तट पर सम्पन्न अनुष्ठान यह सर्व 
भरते हृदय में उमंग अरु उत्साह 
पावन सतनाम सरित प्रवाह 
गाकर जस प्रफूल्लित हुआ अनिल
सुर मे ताल मिलाकर हर्षित इनकी सलिल ...


 डॉ अनिल कुमार भतपहरी 
       सहा प्राध्यापक( प्र .श्रे.)
    उच्च शिक्षा विभाग छत्तीसगढ़