Thursday, April 27, 2023

छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय

छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय 

    हिन्दी साहित्य में छायावाद का कालखंड अतिशय महत्वपूर्ण हैं। बिन इनके साहित्य का अध्ययन अध्यापन या विचार विमर्श संभव नही है।  सच कहे तो इस  कालखंड मे हिन्दी जिसे खड़ी बोली कहे जाते है और काव्य के लिए अनुपयुक्त वह धारणा बदली और हिन्दी भाषा प्रांजल और   काव्यमय हुई।   
        हालांकि कोमल कांत पदावलि और बढते संस्कृत निष्टता के चलते भाषा दुरुह जटिल हुई तथा कविता रहस्यमय होकर गुंफित भी हुई पर यह जटिलता ही भाषाई संरचना और भाव विन्यास को गहराई से समझने की व्यापाक दृष्टि भी प्रदान की।
    छायावाद मे जो पश्चिम की  मिस्टीसिज्म या रुमानियत और इस्लामिक सूफियाना फलसफा दिखता है उससे यह बेहद प्रभावी और वैश्विक स्तर पर चिन्हाकित भी की गई  ।
    इस छायावाद के प्रवर्तक कवियों मे छत्तीसगढ के रायगढ़ जिला के महानदी तटवर्ती बालपुर ग्रामवासी कविवर पं. मुकुटधर पांडे अग्रणी है। कुर्री के प्रति  काव्यांश का यह भाव देखिए जिसमें  छायावाद के विशेषताएं समाहित है-

 शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
बता कौन सी व्यथा तुझे है , है किसका परिताप ?  ( 1 ) 
    यह प्रश्न वियोगी कवि  का प्रश्न है जिनकी उत्तर खोजा जाना शेष है।
   कविवर पंत जो छायावाद के बड़ा नाम है वो तो स्पष्ट कहा है -

वियोगी होगा पहला कवि आह से ऊपजी होगी गान ।
नैनो से उमड़ कर चुपचाप बही होगी कविता अनजान ।।   (2) 

हालांकि छायावाद और उनके प्रवर्तक के नाम पर काफी प्रवाद है ।यह नाम साहित्य जगत  चल पड़ा पर किसने सबसे पहले उपयोग किया इन पर भी बहसे आज तक की जाती  हैं, फलस्वरुओ लोगों मतैक्य नहीं है।
    सन १९२० में ' श्री शारदा ' पत्रिका जबलपुर से निकलती थी उसमें ' हिन्दी कविता में छायावाद शीर्षक से एक लेख माला पंं. मुकुटधर पांडेय की छपी। उसके माध्यम से पहली बार " छायावाद " शब्द और छायावादी काव्यान्दोलन को लेकर प्रमाणिक तौर पर विस्तृत रुप से सामाग्री सामने आई। " इसी तरह हितकारिणी पत्रिका मे -"हिन्दी कविता में छायावाद " निकली। (3)
   इस आधार पर उन्हे छायावाद नाम देने वाले कहे जा सकते है।इस संदर्भ में डाॅ. बल्देव जी का यह व्यक्तव्य महत्वपूर्ण हैं -" पंडित मुकुटधर पांडेय संक्रमण - काल के सबसे अधिक सामर्थ्यवान कवि हैं। वे द्विवेदी युग और छायावाद के बीच की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी हैं, जिनकी काव्ययात्रा को समझे बिना खड़ी बोली काव्य के दूसरे - तीसरे दशक तक के विकास को सही रुप से समझा नहीं जा सकता । उन्होंने द्विवेदी युग के शुष्क उद्यान में नूतन सुर भरा तथा नव बसंत की अगवानी  कर के युग प्रवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया ।" (4)
     भक्तिकाल में ज्ञान मार्गी निर्गुण पंथी संतो एंव  सूफी - संतो  की रहस्यमय साधना रही हैं। कुछ कुछ उसी तरह की बातें काव्यात्मक जगत में छायावादी दृष्टिकोण ने प्रस्तुत की-
छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु हैं कि शब्दों द्वारा उसका ठीक - ठीक वर्णन करना असंभव है। उसका एक मोटा लक्षण यह है कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहा है। कहीं कहीं तो इन दोनों का परस्पर कुछ भी संबंध नहीं रहता । लिखा कुछ और ही गया हैं, पर मतलब उसका कुछ और ही निकलता है, किन्तु पाठक इस शब्द -अर्थ के विरोध को देख अलंकारशास्त्र के रुपक अथवा व्यंग्य का विभ्रम न होने दे। इसमें ऐसा कुछ जादू भरा है कि प्रत्येक पाठक अपनी रुचि और समझ के अनुसार इसमें भिन्न -भिन्न  अर्थ निकाल सकता है और भिन्न- भिन्न रीति से ,परन्तु समान भाव से , उसका आनंद - अनुभव कर सकता है। कवि का अभिप्राय उसके लिखने से चाहे जो रहा हो , इससे पाठकों का संबंध कुछ भी नहीं ।" आगे  कविन्द्र रवीन्द्र की पंक्ति का उद्हरण देते हैं - " मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध  रहता हैं। वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य - सीमा को अतिक्रम करके मन - प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है, क्योंकि वहाँ उसे अपनी रुचि तथा इच्छा - पूर्ति का यथेष्ट अवसर मिला करता हैं। (5)


फलस्वरुप  कविवर पांडे जी  उस अज्ञात सत्ता और शहर का श्रोता बनकर हमारे समक्ष सुनाने आ जाते है - 
    सुना , स्वर्णमय भूमि वहां की मणिमय है आकाश ।
वहां न तम का नाम कहीं है, रहता  सदा प्रकाश ।।   ( 6)

    बालपुर ग्राम मे निर्भय और निसंक निवासरत थे । भौतिक  अभावों के बीच प्राकृतिक संशाधनों और आत्मीय संपदा के वे मालगुजार थे फलस्वरुप ग्राम वैभव उनकी कविता द्रष्ट्व्य है - 

शांति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता भाई। 
देखों नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई ।। ( 7 )
      मुकट धर पांडे जी की मूल्याकंन बच्चू जांजगिरी ने की फलस्वरुप उनकी  ख्याति चतुर्दिक फैली अन्यथा उनकी अवदान सुदूर छत्तीसगढ़ के होने के कारण विस्मृत कर दिए गये होते । बहरहाल यहां के साहित्यिकों का यह नैतिक दायित्व है कि यशस्वी रचनाकारों की ओर भी नजर इनायत कर लिया करें। पता नही हमारे बौद्धिकों / अध्येताओं, रचना धर्मियो  यहां तक आध्यापकों को भी यह लगता है कि बड़ा फलक और रचनाकार केवल  गंगा हिमालय के भूभाग मे गोया कि वही सौन्दर्य बिखरा हुआ है और कही नही फलस्वरुप वहां बडे और प्रवर्तक रचनाकार होन्गे। पं . मुकुटधर जी इस मिथक को तोड़ते है। और छोटे से ग्राम मे रहकर वे वैश्विक साहित्य रचते है - 
दीन - हीन के अश्रु नीर में 
पतितों की परिताप पीर में
संध्या के चंचल समीर में 
करता था तू गान 
देखा मैने यही मुक्ति थी 
यही भोग था यही मुक्ति थी 
घर मे ही सब योग - युक्ति थी 
घर ही था निर्वाण । ( 8)
    इस तरह देखे तो उनकी रचनाएं  भाव प्रवण और भाषा बहुत ही उत्कृष्ट हैं।  उनकी रचनाओं  छायावाद और स्वच्छंदता स्पष्ट दृष्टिगोचर होते है 
।    
    उनकी रचनाओं छत्तीसगढ़ी शब्द और यहां की साञस्कृतिक तत्व अनायस देखने मिल जाते है। उनकी चर्चित व प्रतिनिधी कविता कुर्री के प्रति एक तरह से प्रवासी पक्षी का समूह है जो दूर देश आते है। उनकी उच्चरित  ध्वनि के कारण यहां उसे कुर्री कहते है को लक्ष्य कर उन्होने अप्रतिम काव्य रचना की और वह छायावाद की कविता के रुप में स्वीकृत की गई ।कुर्री कहने मात्र से ही छत्तीसगढ प्रदर्शित हो जाते है। महाकवि कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद दर्शनीय है। उनकी अनुवाद कला और छत्तीसगढ़ी शब्द संयोजन बेहद सटीक है। इस अनुवाद से सहज पता चलता है कि छत्तीसगढ़ी अनन्य भावों अभिव्यक्त कर सकने असीम क्षमता संस्कृत सदृश्य रखती है। 
श्रंगार और प्रेम प्रधान वर्णन , सौन्दर्य भावना की अतिशयता छायावाद की विशेषता रही हैं। इस संदर्भ पर पांडेय जी का विचार रखे तो विषयान्तर नहीं कहा जाएगा ।वे लिखते हैं- " मेरी नई उम्र थी ।सौन्दर्य के प्रति मन में एक आकर्षण था ।मैंने ' रुप का जादू' लिखा, जिसे सरस्वती के प्रथम पृष्ठ में स्थान मिला । शायद 1918 की बात है। ठीक- ठीक स्मरण नहीं ।उस समय की एक रचना की दो पंक्तियाँ याद हैं -

कुटिल केश चुम्बित कष उनके मुख मंडल का हास ।
मेरे मलिन लोचनों को फिर देगा दिव्य प्रकाश ।।9
 यह छत्तीसगढ़ के लिए गौरव की बात हैं कि साहित्य जगत में मुकटघर पांडेय जैसे व्यक्तित्व का पदार्पण हिन्दी काव्य जगत के उत्कर्ष काल में हुआ। प्रदेश के ख्यातिलब्ध समीक्षक डाॅ. बल्देव जी अपनी पुस्तक छायावाद और मुकुटधर पांडेय में लिखते हैं- " पंडित मुकुटधर पांडेय हिन्दी के उन शीर्षस्थ यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्हें उनकी एक - दो रचनाओं से ही यथेष्ट ख्याति मिल गई । उनकी कविता ' कुर्री के प्रति' तथा ' छयावाद ' लेखमाला गुलेरी जी की कहानी ' उसने कहा था ' की तरह अमर रचनाएँ हैं। पांडेय जी ने गद्य में भी काफी लिखा हैं, जो राष्ट्रभाषा आंदोलन का ही एक हिस्सा हैं। (10)
भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मनित पांडेय जी प्रदेश के गौरव है । वे आने  वाली नई पीढी के मार्ग दर्शक हैं।

संदर्भ - 
1 मुकुटधर पांडेय व्यक्ति व रचना पृ 410 संपादक - अग्रवाल महावीर , श्री प्रकाशन दुर्ग 2001
2 सुमित्रानंदन पंत की सुप्रसिद्ध कविता 
3   मुकुटधर पांडे व्यक्ति एंव रचना पृ 438 संपा अग्रवाल महावीर श्री प्रकाशन दुर्ग 2001 
4 छायावाद और पं.मुकुटधर पांडेय  पृ 20 डाॅ. बल्देव 
5 छायावाद और पंं. मुकुटधर पांडेय पृ 149 डाॅ बल्देव 
6 मुकुटधर पांडेय व्यक्ति एंव रचना पृ 411 संपा . अग्रवाल महावीर श्री प्रकाशन दुर्ग 2001
7 मुकुटधर पांडेय  व्यक्ति एंव रचना पृ 419 संपा अग्रवाल महावीर श्री प्रकाशन दुर्ग 2001 

8 मुकुटधर पांडेय व्यक्ति एंव रचना पृ 414 संपाद अग्रवाल महावीर श्री प्रकाशन दुर्ग 2001 

9 मुकुटधर पंडेय की काव्ययात्रा - डाॅ. देवीप्रसाद वर्मा पृ 94 साहित्यवाणी इलाहाबाद 2006

10 छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय पृ 183 डाॅ बल्देव वैभव प्रकाशन रायपुर 2003 
       
    डाॅ. अनिल कुमार भतपहरी 
          ( 9617777514)
              सी - 11/ 9077 ऊंजियार - सदन सेंट जोसेंफ Serv अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़  4920001

Sunday, April 9, 2023

अथ गुड़ाखू गाथा

अथ गुड़ाखू गाथा 

 सड़ा -गला गुड़ और सड़ा गला  तंबाकू के मेल से उत्पन्न गुड़ाखू  कैंसर के जनक स्लो पाइजन हैं।
        छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के प्रायः अधिकतर घरो में उपयोग की जाने वाली नशायुक्त  प्रसाधन सामग्री हैं। इसे दांतों में घीसे और ओठ और गाल में ‌दबाए जाते हैं। 
     मंदिर और सूरज जैसे धार्मिक महत्व के प्रतिमानों के ब्राण्ड या छाप से बिकने वाली यह नशा पदार्थ की करोड़ों में व्यवसाय हैं। बात- बात में  धार्मिक लोगों की भावना आहत होते हैं कह आन्दोलन करने वाले कथित धार्मिक संगठन और नशा मुक्ति संगठन  पता नहीं क्यो  उत्पादक उद्योगपतियों के ऊपर  धार्मिक भावना को आहत करने संबंधित ‌एक‌ भी मामला आज तक नहीं उठाए गये हैं।
           हद्द तो तब है जब व्रत उपवास वाले दिन भी धार्मिक समुदाय इनका सेवन करते हैं क्योंकि यह खाद्य पदार्थ नहीं है। बिना इनके इस्तेमाल के आदमी काम के लायक नहीं होते ।एक दिन में 5-7-10 बार तक घिसने वाले यह सहज  हर गली के किराना पान ठेले में सहज उपलब्ध 10 रुपये की चीजे कोरोना काल में 100 रुपये तक बिकती रही । 
         
         छत्तीसगढ़ के जन- जीवन खासकर ग्राम्य अंचल में चोंगी ,बीड़ी  ,तंबाकू, गुड़ाखू और मंद ,सल्फी, ताड़ी  लांदा ,हडिया, कोसना ऐसे नशीले पदार्थ हैं जिसके प्रयोग से यहाँ महत्वाकांक्षा जैसे बिमारी से मुक्त हैं।  रोटी कपड़ा मकान जैसे आधारभूत चीजे मिले न मिले पर यह चीज मिल जाये तो जीवन में जन्नत हैं। उन्हें नशीला सुख और स्वर्गिक आनंद में निमग्न करके भी उनके हुक्मरान बनने‌ का शानदार वृतांत हैं। हालात तो यह हैं कि घर परिवार छूट जाय कोई गल नही जी -
  
छूट जाही डैकी लइका एक दिन संग साथ ले 
 फेर हाय रे गुड़ाखुर डबिया छूटे नहीं हाथ ले 
     
    एक पाव दारु और दो बोटी मांस बिछिया पैरी लुगरा में मतदान करने वाले औघट दानियों के लगता है प्रेरक  ईष्ट महादेव ही‌ हैं जिसे जानबूझकर शास्त्रीय प्रणाली के अन्तर्गत हलाहल के साथ -साथ भांग, गांजा, धतुरे में डुबाकर मदमस्त कर दिये गये हैं। उसी की अनुगामी व उनकी   भक्ति में लीन अवघट बाट में ‌पडे विकास से कोसो दूर भाग्य और भगवान के भरोसे  रत्नगर्भा अमीर धरती में गरीब लोग हर सुबह दातुन के जगह गुडा़खू घीस कर दिनारंभ करते आ रहे हैं। और तरिया पार में बिराजमान महादेव में ‌जल अर्पण कर परमानंद में लीन है।  तभी तो रामायण, जगराता, सेवा छठ्ठी छेवारी बरही में बीडी माखुर  चीलम गांजा बाटने की विलक्षण परंपरा विद्यमान हैं।  
          जागो भक्तों और सूरज मंदिर तोता छाप वालों से बचो नस्ल और पीढ़ी को गुड़ाखू तंबाकू मंद आदि से बताओ नहीं तो तुम्हारे दास्ता किसी दास्तान में भी नहीं मिलेगा । धार्मिक एंव सामाजिक आयोजनों  में इन पदार्थों का वितरण बंद करों  और छद्म प्रतिष्ठा पाने की भ्रम से बचों।

   - डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, April 1, 2023

करे श्रेष्ठ नव सृजन

#anilbhatpahari 

एक मंचीय तुकबंदी कविता कभी आमंत्रित होते और पढ़ा भी करते थे। 

   ।। करे श्रेष्ठ नव सृजन ।।

अतीत उज्ज्वल रहा तो वर्तमान क्यो अंघेरा हैं

आत्म मुग्धता के चलते कोहरा बड़ा  घनेरा है

चंद लोगों के ऐश्वर्य  गान से कब तक  मोहित रहे 

गिरेबान झांक देखे सब मन विष्णन तन लोहित रहे 

घरा पर उन्ही का स्वर्ग जो इस धरा को नर्क किए 

अपने स्वार्थ के चलते सुन्दर देश का बेड़ा गर्क किए 

महादेश में गर्व से अधिक शर्म करने का भी दास्ता हैं

इसलिए तो यहाँ सबकी अलग अलग मंजिल रास्ता हैं

महल मंदिर  के सिवा जन मन का अवशेष क्या है?

राजा रानियो के सनक से सिवा और विशेष क्या है?

आजादी के बाद   आई  समृद्धि यह संविधान  से है 

फिर भी संशय उन्हें जो मोहित पुरा छद्म यशगान से है

 कुछ गिरोह फिराक में लगे हैं बदलने संविधान को 

दिए जा रहे हैं बढ़ावा  कल्पित मिथकीय यश गान को 

कितनी कुरीतियों अमानवीय बर्बरपन का दंश रहा 

जिनकी लाठी उनकी भैस कबीलाई संस्कृति का अंश रहा 

चंद उंगुली में गिने उनसे कुछ होने वाला नहीं ‌है

अधनंगे भूखे जन जीवन सहज एक निवाला नहीं हैं 

संप्रभूता को भोगते जो कैद कर रखा हैं  उजास  को 

प्रवक्ता बना फिरता हैं जो उपलब्धि माने निज विकास को

आत्ममुग्धता से बाहर निकल कर आओं करे  कुछ चिंतन मनन 

स्वर्ग मोक्ष सतलोक परलोक से उबर कर प्यारे करे  श्रेष्ठ नव  सृजन 

         - डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514