Monday, June 11, 2018

सतनाम जागरण

"सतनाम-जागरण "
सतनाम महज हक अधिकर व संशाधन अर्जित करने आन्दोलन न होकर एक आत्म कल्याण हेतु मानव का आध्यात्मिक जागरण हैं। परन्तु इसे भी भारतीय मनीषा  पारंपरिक रुप से ईश अराधना समझ  निर्गुण मार्ग में आबद्ध करते हैं । जबकि गुरुघासीदास बाबा सगुण निर्गुण साकार निराकार किसी सर्व शक्ति सम्पन्न  ईश्वर उनके अवतार आदि की अराधना की बाते न कह कर अपने धट भीतर व्याप्त आत्मबल आत्म शक्ति को जागृत करने सप्त सिद्धान्त प्रतिपादित करके जनमानस में  सतनाम जागरण चलाए। सदाचार व सद्व्यवहार को लोकाचार रुप देकर समाज में  सुचिता और सत्य विश्वास को स्थापित किए इस तरह वे समाज में  सदगुरु के रुप में प्रतिष्ठित हुए।
सतनाम की शक्ति यदि पूर्ववत  चमत्कार जादू होते तो ऐसे तत्व से देश भरा हुआ था।३३ कोटी देवताओं  साथ अनेक तरह की ग्राम्य देव देवियाँ थी। 
उनके स्थान पर गुरुघासीदास ने संत समाज को सतनाम की शक्ति से परिचय कराते उनकी ‌जाप सुमरन करने की बाते क्यों कहे? लोग अपनी पुरातन रुढ़- मूढ़ मान्यताओं और अपनी छद्म जात पात धर्मादि का परित्याग कर सतनाम के अनुयाई बन सतनामी क्यो हुए? और तो और उनके एवज में उन्हें सामाजिक बहिष्कार सहित अनेक उत्पीड़न सहने पड़े ।कुछ तो होगा जो उन्हें मर्मान्तक पीड़ा से मुक्ति देकर सुकून और शांति प्रदान करते रहे हैं।
इसलिए उन्हे विचित्र कर्मकाण्ड भ्रम मिथक आदि से बचाकर सतनाम की उपासना ,साधना , भक्ति व अराधना की ओर मोड़े । सरल सहज सात्विक जीवन यापन हेतु सतनाम एक विशिष्ट दर्शन हैं जो मानव मन  को जागृत करते हैं। यह अध्यात्मिक पंथ या  मार्ग  हैं जिसके द्वारा अन्त:करण की यात्रा की जाती हैं।  इस दृष्टि से इन्हे "सतनाम जागरण"  कहते हैं। परन्तु इसे आन्दोलन कह इनके मूल स्वर को डायवर्ट करने की कयावद भी हुई है। आन्दोलन इसलिए भी सहज ग्राह्य हुआ क्योकि संगठित मानव समुह हक अधिकार के लिए सतनाम की नारा लगाते आन्दोलन रत हो गये। परन्तु यह सतनाम का बाह्य स्वरुप हैं,आन्तरिक नहीं। आन्दोलन से आप संशाधन पा सकते हैं पर जीवन यापन की कलाए नहीं ।वस्तुए और सामग्री संचय कर सकते हैं पर सुकून और शांति नहीं । बडे बडे भूस्वामी इन्हीं के अभाव के चलते तेजी से क्षरित हो गये।सतनाम को पदार्थ भौतिक वस्तु समझ उनकी मन या हृदय के भीतर तक की चेतना जागरण करने वाली अलौकिक शक्ति से अपरिचित होते गये ।और अधात्मिक क्षुधा  मिटाने यत्र -तत्र बिखरने लगे। 
वर्तमान में कुछ  लोग बाग जो कथित साछर और नौकरी पेशा शहरी तबका छिटकर कर गायत्री रामास्वामी सतपाल बौद्ध इसाई जय गुरुदेव श्री माली आदि के शरणागत हो रहे हैं । और सतनाम धर्म संस्कृति को गंवारु रुढ़ मूढ़ समझ उन की नित अवहेलना कर रहे हैं । मानो वे लोग गुरुबाबा से भी अधिक प्रग्यावान हो चले हैं। दो अछर पढ क्या लिए पुस्तकी ग्यान ले क्या लिए सतनाम की विराट दर्शन की अवहेलना करने पर उतारु हो जाते हैं ।
     सतनाम दुखी पीड़ित लोगों  मरणासन्न वृद्ध बीमार व्यक्ति को मृत्यु भय से उबारते हैं। तो सुखी समृद्ध  लोगों व युवा बेरोजगार उन्मत्त  लोगों को अनेक तरह से भय से उबार उनकी कल्याण कैसे नहीं करेन्गे। जरुरत मंद  राह चलते दो टुक कहते कि हमे रोटी रोजगार चाहिए धर्म दर्शन नहीं ।यह सच भी हैं गुरु बाबा ने सतनाम की प्रवर्तन करते कहे कि तय अपन बर बारो महिना के खर्चा जोड ले तब सतनाम के  भक्ति कर न इते झन कर ।यह उन जरुरत मंदो के लिए हैं। पर जिनकी आवश्यकता पूर्ण हो गई जो समय प्रभाव खो चुके या उनके जगह उनके पुत्र उत्तराधिकारी हो घर गृहस्थी चलाने क्या अब उनके साथी सतनाम नहीं ? क्या इनकी अराधना से वह शेष जीवन सुखमय  व शांति पूर्वक नहीं व्यतित कर सकते? अब उनके सतनाम आन्दोलन नहीं बल्कि अन्त:करण और भीतर की आध्यात्मिक यात्रा का एक नायाब   अलौकिक पंथ हैं। नाराबाजी या  श्लोगन नहीं हैं। सभा जुलुस में शक्ति संगठन प्रदर्शित करने वाले कारक नहीं है।
    
बाहरहाल आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना होने पर संगठित समुदाय में हक अधिकार के लिए राजनैतिक चेतना या उन्हे वैग्यानिक चेतना से सम्पन्न कराना है तो मना कहा हैं? उन्हें बेहतर ढंग से व्यवस्थित कीजिए ।गुरुवंशज या कोई भी जिस पार्टी आदि से जुड़े है इसके मतलब समस्त समाज को जोड दिए या दलाली आदि निकृष्टतम शब्दावलियाँ का प्रयोग क्यु ? लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में हर व्यक्ति और पार्टी को समाज में अपनी बाते और उनकी सहमति मत आदि लेने का अधिकार हैं। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता और शासन संविधान की हैं। किसी पार्टी या विचारधाराओं का नहीं । ये केवल लोगो को अपनी मान्यताओं से आकृष्ट कर मत लेना भर हैं। 
बाहर हाल सतनाम ही सबसे उन्नत वैग्यानिक चेतना के साथ साथ राजनैतिक चेतना से सम्पन्न कराते है। इन तथ्य को समझ कर अपनी - अपनी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए अन्य को नहीं कह सकते पर जो अपने लोग हैं। उसे पूर्व मान्यताओं और समयानुकूल आधुनिक परिदृश्य के आधार पर मणिकांचन अनुप्रयोग  धर्म व जनकल्याण हेतु करना चाहिए।
 
सतनाम ही सबकी सार है।

संसार सतनाम मय हो
     सत श्री सतनाम
            -डा. अनिल भतपहरी

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