Monday, April 7, 2025

धर्म नहीं पंथ ही उत्कृष्ट और व्यवहारिक हैं.

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धर्म नहीं पंथ ही व्यवहारिक और सर्वोत्कृष्ट है.
आजकल  हिन्दू मुस्लिम बौद्ध ईसाई धर्म के स्थान पर मानव धर्म की बातें की जा रही है. जो कि
किसी के साथ " धर्म " शब्द लगना अव्यवहारिक है. 

.   असल में  भारतवर्ष में  व्यक्ति के लिए "धर्म " कभी रहा ही नहीं वह शैव शाक्त वैष्णव  जैन,बौद्ध  धम्म,मत पंथ ही था जिसे 100-150 वर्ष ही हुए है भारतीयों के लिए  (बौद्ध धर्म को क्योंकि यह देश में जमीदोज हो चूका था इसलिए इसे छोड़कर डॉ अम्बेडकर नें उसे 1956 में पुन:प्रवर्तन किया) सभी मत पंथ आदि जिसमें आदिवासी भी हैं को सामूहिक रुप सें "हिन्दू "कहें गये और उसे ही धर्म मान लिए गये !  जबकि  हिन्दू शब्द स्थान बोधक हैं  यह शब्द किसी भारतीय  भाषा में भी नहीं हैं न ही धर्मशात्र में  हैं. मुस्लिम मजहब हैं,ईसाई रिलीजन हैं.

.  खैर बात  धर्म शब्द की हैं जैसे धर्म किसी वस्तु या व्यक्ति या प्राणी में मिलने वाली  गुण- अवगुण प्रवृत्ति उदा. पानी का शीतल, आग का तपिश, हवा का बहना, धातु का कठोर,शेर का हिंसक मांसाहारी , गाय शाकाहारी, सांप का विषैले होना आदि है जिसे वह अपने में धारित कर रखा है वहीं उनका धर्म हैं . इस तरह यह मनोवृत्ति सूचक धर्म शब्द, पंथ के आगे का हैं या एक धर्म में अनेक मत पंथ की बातें तो और भी अधिक अव्यवहारिक व अप्रसांगिक हैं.तो स्थान बोधक हिन्दू हिन्दूस्तनी भारतीय  या अमेरिकी या पाकिस्तानी धर्म कैसे हो जाएगा? 

असल में समुदाय के मत मजहब पंथ  रिलीजन प्रणाली पद्धति लिखित /अलिखित होते है जिसके अनुरुप जीवन निर्वाह किए जाते है.यह परिवर्तनीय और ऐक्छिक भी है.
नाहक धर्म जो गुण अवगुण आदि को इन के साथ मिलाकर भ्रम फैलाये गये है. धर्म शब्द को व्यक्ति के सामूहिक पहचान के प्रयोग में लाना ही नहीं चाहिए इसे प्रतिबंधित भी कर देना चाहिए.क्या गाय हाथी शेर चींटी मछली चिड़िया जैसे प्राणी और पेड़ फूल टेबल टीवी मोबाईल कार बाइक आदि का कोई  मत पंथ  है? नहीं उनके गुण होते जिसे वह धारित किए होते है.ठीक मनुष्य भी अच्छे बुरे गुण को अन्य प्राणियों की तरह धारित करते है. तो नीरा मनुष्य नामक प्राणी का धर्म हिन्दू मुस्लिम सीख ईसाई आदि क्यों? 
.   हाँ वह समूह में रहता है तो उस समूह समुदाय का मत पंथ मजहब रिलीजन जरुर होते है. उसे ही हम उक्त नाम सें और उनकी कुछेक क्रियाये वेशभूषा आदि सें पहचाने जाते है.बाहरहाल मत पंथ भी गुरु घासीदास जी के कथनानुसार होना चाहिए -

"अवैया ल रोकन नहीं जवाइयां ल टोकन नहीं."

जबरिया किसी पर  मत पंथ विचार को थोपने और जो है उसे जबरिया उनमें बांध कर रखने की आवश्यकता भी नहीं. क्योंकि यही सब चीजें ही सारी फसाद की जड़ है.
परम सत्य ही इस तरह भ्रम जाल और अज्ञानता रूपी तमम को काट कर  ज्ञान का आलोक फैलाते है.

. इस तरह विचार करें तो मनुष्य के लिए  धर्म सें अधिक  पंथ ही उत्कृष्ट और व्यवहारिक है.जो सतत प्रवाह मान और जीवंत या बुद्ध की वाणी में कहें तो " एतो धम्मों ( पंथ  )  सन्नतनो " है. अर्थात जीवन जीने यह धम्म या मार्ग सनातन हैं.
.    सनातन शब्द यहॉं विशेषण हैं जो धम्म मत पंथ की विशेषता को व्यक्त करते हैं. अतः ज्ञानियों प्रज्ञावानो विचारकों को चाहिए कि देश और समाज  में  पंथ मत और धर्म की वास्तविकता को जनमानस को अवगत करावें और उन्हें अनेक तरह के भ्रम और सड्यंत्र सें सावधान भी करावें. ताकि इस उपमहाद्वीपिय महादेश मे विविधतापूर्ण संस्कृति अक्षुण बनी रहें और परस्पर सदभाव और सौहार्द सें अमन चैन क़ायम रहें.

. डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

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