मानव के साथ हिन्दू बौद्ध जैन मुस्लिम ईसाई धर्म लगना भी अव्यवहारिक है.
असल में इस नाम सें कोई धर्म रहा नहीं न ही रहना चाहिए..हाँ यह सब मत धम्म पंथ मजहब रिलीजन मात्र हैं जिसे धर्म का पर्याय मान लिए गये हैं या माना जा रहा हैं जोकि गलत हैं.
धर्म किसी वस्तु या व्यक्ति या प्राणी में मिलने वाली गुण- अवगुण प्रवृत्ति है जिसे वह धारित कर रखा है.
असल में मानव समुदाय के मत मजहब पंथ रिलीजन प्रणाली पद्धति लिखित /अलिखित होते है जिसके अनुरुप जीवन निर्वाह किए जाते है.यह परिवर्तनीय और ऐक्छिक भी है.नाहक धर्म जो गुण अवगुण आदि को इन के साथ मिलाकर भ्रम फैलाये गये है. धर्म शब्द को व्यक्ति के सामूहिक पहचान के प्रयोग में लाना ही नहीं चाहिए इसे प्रतिबंधित भी कर देना चाहिए.क्या गाय हाथी शेर चींटी मछली चिड़िया जैसे प्राणी और पेड़ फूल टेबल टीवी मोबाईल कार बाइक आदि का कोई धर्म है? तो नीरा मनुष्य नामक प्राणी का धर्म क्यों? हाँ वह समूह में रहता है तो उस समूह समुदाय का मत पंथ मजहब रिलीजन जरुर होते है.
मत पंथ भी गुरु घासीदास जी के कथननुसार होना चाहिए -
अवैया ल रोकन नहीं जवाइयां ल टोकन नहीं. जबरिया किसी पर थोपने और जो है उसे जबरिया बांध कर रखने की आवश्यकता भी नहीं.
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