Friday, October 26, 2018

थोड़े में बहुत

"थोड़े में बहुत "  

     पता नही क्यों.. समान विचार-धारा या मंतव्य रखने वालों के प्रति नेह होने लग जाते है। चाहे वह समलिंगी या विषमलिंगी हो।
   या ऐसा भी कह सकते है कि विचारधारा में लिंगभेद नही होते । मिलने पर सभी संगी हो जाते है ।
     हुआ युं कि अल सुबह बस में बैठते ही एक ९-१० साल की बालिका शनि देव की फोटो रखी भिछाटन हेतु आई ... बिना कुछ बोले चुपचाप यात्रियों के समछ धुमाने लगी ... लोग यथाशक्ति रुपये देने लगे जैसे ही मेरे पास आई  मैने कहा - "स्कूल क्यो नही जाती ?"  पढ़ने के वक्त भीख !  सहयात्रियों की निगाहे चिरती - भेदती आड़ी -तिरछी होने लगे।
   वे भी बड़ी- बड़ी आंखें तरेरते गुस्से से कुछ न बोली और पीछे सीट की ओर बढ़ गई ।
    थोड़ी देर पीछे दरवाजे से उतर ही रही थी कि हमने खिड़की से देखा कि उसकी मां , बुआ या जो हो  काले रंग की साड़ी मे सजी-धजी एक और शनि महराज को टोकनी नुमा कमंडल में रखी एक स्कुटर सवार से भिछा मांगने लगी.. वे तमतमाते कह रहे थे -"शर्म नही आती जवान होकर मांगती -फिरती हो !"
गंदा काम करती हो !
बच्चों को पढ़ना -लिखना छुड़वाकर  उनसे भीख मंगवाती हो!
ओ कही अच्छा काम क्या है ?
परिश्रम !
हाथ नचाती मोहक अंदाज से ओ कही-" यहु म बड़  मिहनत लगथे !
  वो इस तरह के प्रश्नों से अभ्यस्त थी और जवाब देना जानती थी।
  वे मंद -मंद मुस्काने लगी..दान .देना न इ देना तोर मरजी
   पल भर में  हमारा नेह उस अजनबी से  जुड़ गये ...और  बहुतों का नेह  पल भर में उस शनि पूजारन से जो काली रंग की साड़ी में बला की खुबसूरत लग रही थी ।लोग कौतुहल व अन्य भाव से उनकी ओर दया तो नही पर मया वाली दृष्टि से टुकुर- टुकुर देखने लगे  .... दो चार समर्थन में स्वर  उठने लगे यही लोग हमारी संस्कृति के रखवाले है ।हमें उन्हे आदर देना चाहिए .... बस तो चल पड़ी पर ऐसा कहने वालों से हमारी बहस शुरु हो गये कि -"क्या ये लोग संस्कृति के संवाहक है और क्या इससे  देश  कीर्तिमान होन्गे?" .... वृतांत लंबी है पर इसे "थोड़े में बहुत "समझना ।
   -डां. अनिल भतपहरी
       9617777514

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