Tuesday, October 1, 2019

पाना अउ ढेला

मया मं मितान बदिन पाना अउ ढेला
गर्रा संग पानी दमोरिस घुरगे से ढेला
नोहर भ इगे राम पाना उडि़यागे  ....
दु दिन के बारी दु दिन के कोला
कोन दिना झिकत रे ले जाही तोला
ए ज उहर भ इगे राम नारी जुड़ागे...

ऐसे कैसे

ऐसे कैसे ?
        
        कुएं  में गिरे बाल्टी  हौला -गुंडी आदि  निकालने वाले यह कांटा अब विलुप्त प्राय: हो गये हैं। कभी यह ग्रामीण क्षेत्रों के सप्ताहिक हाट बाजार में बिकते और शहरों के हार्ड वेयर दुकानों में सजा कर रखे जाते थे। 
      हमारे घर यह  कांटा था और हमने अनेक पनिहारिनों की बाल्टियां गुञडी  निकाले हैं।  एक दो बार तो हमसे यह कांटा डोर सहित हाथ से फिसल कर गिर गये जिसे दूसरे कांटे से निकाले है।
           हमारें  गांव के घर  में पक्का गड़गड़ी वाले मीठे पानी का कुआं हैं। अब भी वहाँ जाते हैं‌, तो पानी पीते हैं ।हालांकि ट्युबवेल भी हैं। पर कुएँ की पानी जैसा स्वाद नहीं । आज इस कुएं पर आसपास के क ई घर वाले टुल्लू पंप लगा लिए हैं। और घर बैठे पानी खीच लेते हैं।
       इस तरह पहले नदी तालाब का पनधट विलुप्त हुए फिर  कुएं वाली पनघट नहीं रहे । अब आकाशवाणी से- मंय जांव कइसे पनिया
     हाय लचक दार कनिहा .... नहीं सुनाई पड़ते न कोई पनिहारिन । सर में ३०-४० लीटर या किलो का  बोझ उठा कर कोई चल सकते अब ऐसा न कंधे रहा न सर!

और तो और कुआं के पानी आहू जी ल दोष बांध के गीत नहीं  बजते  या फिर बड़ कठिन है डगर पनघट की कैसे जल भर आऊ मटकी ...या मोहें पनघट पे नंदलाल छेड़ गयों रे ....तब बच्चे ये पनधट क्या है? पुछते तब कोई दार्शनिक अंदाज  में सुफियाना अंदाज से इन प्रेम गीतों का आध्यात्मिक व धार्मिक भावार्थ बताने वाले बड़े बुजुर्ग नहीं रहे। जो कभी इश्क मिजा़जी से इश्क़ हकीकी तक की सफर तय कर झक्क केश विन्यास रखे संत सदृश्य लीम चौरा या पीपल तले कोई श्रोता समूह के बेसब्र इंतजार को देख गौरवान्वित हो सके !
सच कहे तो अब जाके बड़ कठिन है  डगर पनघट की वाली स्थितियां तेजी से निर्मित होने लगी है ।
     शहरों में बीसों साल रहते अजनबी पन की दंश झेलते सारे डगर विलुप्त सा हो गये है।
    बहरहाल  अब तो हालात ऐसे हैं कि अब गुंडी भी नहीं हैं। घर- घर आरो और एक्वागाड लग गये। और जिस देश समाज और घर  की संस्कृति भूखे ल भोजन दे पियासे ल पानी था अब वह खत्म हो गये।यहां पानी का अरबों में व्यसाय होते हैं। होटलों में नाश्ता खाना के साथ पानी नि:शुल्क थे अब वहां पहले पानी खरीदी जाती हैं। निर्लज्जता ये देखे कि जब मेज में भूखे प्यासे बैठे तो बैरा पुछता हैं बिसलरी लाए कि एक्वा कि सोडा वाटर !
और आदमी का फितरत देखे कि बिसलरी मंगाते आसपास को ऐसे देखते कि इससे स्टेटस या इमेज कैसे गया ...
    कुछ तो ऐसे कि बाटल सम्हाल कर रखते और पानी भर -भर कर पीते जगह जगह नगर पालिका वाटर एटीम लगा रखे है। नलो से फिल्टर पानी और क्लोरिन युक्त जल घर घर पहुँच रहे हैं।
   फिर भी जल जनित बीमारियों और पीलिया टाइफाइड से अस्पताल भरा पड़ा हैं। ऐसे कैसे ?